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________________ - तत्वोपदेशः ] द्वितीयो लम्भः निकटवतिनं कोदण्डदण्डमकाण्डकोप घटितकृतान्तभ्रूभङ्गविडम्बिनमविलम्बन गृह्णन्गृहीतकतिपयकाण्डः काष्ठाङ्गारवधे विधाय संरम्भं ससंभ्रममुदतिष्ठत । तथोत्तिष्ठमानं च तमुत्पाततपनमिव दुःसहनामुल्ब विधायभुजङ्गराजमशेष भुवनभयंकरं राजकुमारम् 'अलमलमकाण्डसंरम्भेण' इति निवारयन्नाचार्यः, प्रज्वलत्प्रकोपदहनजनितदाहभय इव शिष्यहृदयमनु सर्पति निजवचसि, 'वत्स, वत्सरमात्रं क्षमस्व । गुरुदक्षिणेयम्' इति सप्रणयमयाचिष्ट । स च कोपाविष्टमतिरपि ५ गुरुणा गुमप्रणयेन तादृशमाचार्यवचनमतिलङ्घयितुमक्षम: प्रतिषिद्धप्रसरेण रोषहुतभुजा भुजंगम इव नरेन्द्रप्रभावप्रतिबद्धपराक्रमः प्रकाममदह्यत । आत्मवैभवं येन तथाभूतः । तत इति-ततस्तदनन्तरम् निकटवर्तिनं समीपस्थितम्, अकाण्डकोपेन असामयिकरोषेण धरितो योजितो यः कृतान्तनमः कालनकटिमस्तस्य विडम्बिनं तिरस्कारक कोदण्डदण्डं धनुदण्डम् अचिलम्बेन सद्यो गृहन् गृहीतानि हस्ते धृतानि कतिपय काण्डानि कतिपयशरा येन १० तथाभूतः सन् काष्ठाङ्गारवधे संरम्भ संकल्प विधाय करवा ससंभ्रमं सत्वरं यथा स्यात्तथा उदत्तिष्ठत उत्थितोऽभूत् । तथेति-तथा तेन प्रकारेण उत्तिष्ठत इत्युत्तिप्टमानस्तथाभूतं तम् उत्पाततपन मिव उत्पात. सूचकसूर्यमिव दुःसहतेजसम् उल्धणविषमुत्कटगरले भुजङ्गराजमिव नागराजमिव भशेषभुवनभयंकर निखिल लोकभयावह राजकुमारम् , 'अकाण्डसंरम्भेण अकालकोपेन अलमलं पर्याप्तं पर्याप्त-व्यर्थमिति यावत्' इति निवारयन् प्रतिषेधयन आचार्य-आर्य नन्दी प्रज्वलत्कोपेन देदीप्यमानरोषेण दहनं ज्वलनं तेन १५ जनितं समुपादितं दाहमयं यस्य तथाभूत इव निजवचसि स्वकीय बचने शिष्यहृदयं राजकुमारचेतः भनुपसर्पति सति, 'वत्स, वत्सरमा वर्षमात्रं क्षमस्व' इति सप्रणयं सस्नेहम् अयाचिष्ट याचते स्म । स चेति स च जीवंधरकुमारः कोपादिष्टमतिरपि सरोषधिषणोऽपि गुरुणा श्रेष्ठेन गुरुप्रणयेन गुरुस्नेहेन तारशं पूर्वोक्तविधम् भाचायवचनम् भतिलयितुमतिक्रमितुम् अक्षमोऽसमर्थ सन् प्रतिबिधः प्रसरो यस्य तेन विल्व वेगेन रोषहुतभुजा क्रोधाग्निना नरेन्द्रस्य विषयस्य प्रभावेण सामथ्येन प्रतिबद्धः पराक्रमी यस्य २० सथामूतो भुजङ्गम इव प्रकाममस्यन्तम् अदात दग्धोऽभूत् । . काँपते हुए ओठसे वे ऐसे जान पड़ते थे मानो शत्रुओंके यशरूपी दूधके पीने का कौतुक ही प्रकट कर रहे थे। उस समय आत्म-वैभव प्रकट हो रहा था। तदनन्तर असामयिक क्रोधसे रचिन यमराजको भौंह के मंगको विडम्बित करनेवाले निकटवर्ती धनुपको शीघ्र ही ग्रहण कर जिन्होंने कुछ बाण ले रखे थे ऐसे जीवन्धरकुमार काष्ठांगारके वधके लिए २५ क्रोध कर संभ्रमपूर्वक उठ खड़े हुए। उस तरह उठते हुए जीवन्धरकुमारको उत्पात सूचक सूर्यके समान दुःखसे सहन करने योग्य तेजसे युक्त अथवा तीवविषसे युक्त शेषनागके समान समस्त संसारको भय उत्पन्न करनेवाले देख 'बस, बस रहने दो यह असामयिक क्रोध व्यर्थ है। इस प्रकार निवारण करते हुए आचार्यने जब देखा कि हमारे वचन देदीप्यमान क्रोधाग्निसे उत्पन्न दाहके भयसे युक्त हुएके समान शिष्य के हृदय तक नहीं पहुंच रहे हैं तब ३० उन्होंने 'हे वत्स ! एक वर्ष तक क्षमा करो, यह गुरु दक्षिणा है' इस प्रकार स्नेहपूर्वक चना की। यद्यपि जीवन्धर कुमार क्रोधसे आकुलित बुद्धि थे तथापि वे गुरुकं स्नेह वश गुरुके उक्त वचनोंका उल्लंबन करने में समर्थ नहीं हो सके और इसीलिए वे गुरुफे द्वारा जिसका प्रसार रुक गया था ऐसी क्रोधाग्निसे भीनर ही भीतर उस साँपके समान अत्यन्त जलने लगे जिसका कि पराक्रम विश्वैद्यके प्रभावसे रुक गया था। ३५ १. क० ख० ग० रोष । २. फ० ख० स च सकोपाविष्टमतिरपि, म स कोपाविष्टमतिरपि ।
SR No.090172
Book TitleGadyachintamani
Original Sutra AuthorVadibhsinhsuri
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1968
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size20 MB
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