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________________ गद्यचिन्तामणिः वसन्त ऋतुका समय था । एक दिन द्रदत्त पुरोहित प्रातःकाल के समय राजाके घर गया । उस समय रानी आभूषण रहित बैठी थी। पुरोहितने पूछा कि राजा कहाँ है ? रानीने उत्तर दिया कि अभी सोये हुए हैं इस समय उनके दर्शन नहीं हो सकते। रानीके इन वचनोंको अपशकुन समझ वह लौट आया और कांगारिक मन्त्रीके घर गया । पापबुद्धि पुरोहितने मन्त्री से एकान्तमें कहा कि तू राजाको मार डाल | मन्त्री पुरोहितकी बात मानने में असमंजसता दिखायी तो पुरोहितने दृढ़ता के साथ कहा कि राजाके जो पुत्र होनेवाला है वह तेरा प्राणघातक होगा इसलिए इसका प्रतिकार कर रुद्रदत्त इतना कहकर घर चला गया और रोगसे पीड़ित हो तीसरे दिन मरकर चिरकाल तक दुःख देनेवाली नरक गतिमं जा पहुंचा । इधर काष्ठांगारिकने दत्त के कहने से अपनी मृत्युको आशंका कर राजाको भारनेकी इच्छा को । उसने घन देकर दो हजार शूरवीर राजाओं को अपने अधीन कर लिया। वह उन्हें साथ लेकर युद्ध के लिए राजमन्दिरकी ओर चला । जब राजाको इस बातका पता चला तो उसने रानीको गरुडयन्त्रपर बैठाकर वहाँसे शीघ्र ही दूर कर दिया। काष्ठांगारिक मन्त्रीने पहले जिन राजाओं को अपने वश कर लिया था उन राजाओं ने जब सत्यन्धरको देखा तो वे मन्त्रीको छोड़ राजाकी ओर हो गये । राजा सत्यन्धरने उन सबको साथ ले काष्ठांगारिक मन्त्रीपर आक्रमण किया और उसे खदेड़कर भयभीत कर दिया। काष्टांगारिकके पुत्र कालांगारिकने जब पिताको हारका समाचार सुना तब वह बहुत-सो सेना लेकर अकस्मात् वहाँ जा एन् । यसको पाता से काष्टांगारिकने राजा सत्यन्त्ररको मार डाला और स्वयं राजा बन बैठा । २ विजया रानी गरुडयन्त्रपर बैठकर श्मशान में पहुँची। वह शोकसे बहुत विह्वल यो परन्तु पूर्वोक्त यक्षी उसकी रक्षा कर रही थी। उसी श्मशान में रात्रिके समय विजया रानीने पुत्रको जन्म दिया । पुत्रजन्मका रानीको थोड़ा भी आनन्द उत्पन्न नहीं हुआ किन्तु भाग्यकी प्रतिकूलतापर शोक ही उत्पन्न हुआ । 3. "यक्षीने सारगर्भित शब्दों में उसे सान्त्वना दी । गन्धोत्कट सेठ भी अपने मृत पुत्रको छोड़नेके लिए उसी श्मशान में पहुँचा और शीलगुप्त मुनिराज के वचन स्मरण कर दीर्घायु पुत्रकी खोज करने लगा। रोनेका शब्द सुन विजया रानीके पुत्रकी ओर उसकी दृष्टि गयो । सेठने 'जीव जीव' कहकर उस पुत्रको दोनों हाथोंसे उठा लिया। विजया रानोने आवाजसे सेटको पहचान लिया और उसे अपना परिचय देकर कहा कि भद्र ! तू मेरे इस पुत्रका इस तरह पालन करना कि जिससे किसीको पता नहीं चल सके । 'मैं ऐसा ही करूंगा' यह कहकर सेठ उस पुत्रको घर ले आया । और अपनी पत्नी सुनन्दाको डाँट दिखलाने लगा कि तूने जीवित पुत्रको मृत कैसे कह दिया ।" सुनन्दा उस पुत्रको पाकर बड़ी प्रसन्न हुई । सेठने जन्म संस्कार कर उसका 'जीवक' अथवा 'जीवन्धर' नाम रखा । सेटके घर जीवन्धरका अच्छी तरह लालन-पालन होने लगा । १. गद्यचिन्तामणि आदिमें इसकी कोई चर्चा नहीं है । २. यहाँ उत्तरपुराणमें श्मशानका वर्णन करते हुए गुणभद्र स्वामीने जळती चिताओं में से अधजले मुरदे खींचकर उन्हें खण्ड-खण्ड कर खाती हुई डाकिनियोंका वर्णन किया है और इसका अनुकरण कर जीवन्धरचम्पूकारने मी अच्छी गद्य लिखी है पर गद्यचिन्तामणिकारने मात्र श्मशानका उल्लेख कर छोड़ दिया है। उसमें डाकिनी शाकिनी आदिका कोई उल्लेख नहीं किया है। डाकिनी आदि व्यन्तर देवोंका मांस भक्षण शास्त्रसम्मत भी तो नहीं है। जिन्होंने वर्णन किया है वह सिर्फ कवि-सम्प्रदाय श ही किया है । ३. गद्यचिन्तामणिकारने यक्षीको विजयारानीकी चम्पकमाला दाखीके वेषमें प्रस्तुत किया है पर उत्तरपुराण में इसकी चर्चा नहीं है । ४. गद्यचिन्तामणिकारने गन्धोत्कटके पहुँचनेपर सनीको वृक्षकी ओट में अन्तर्हित कर दिया है और ज्योंही Talese arrest उठाया त्योंही आकाशमें 'जीव' इस शब्दका उच्चारण कराया है । ५. पराया पुत्र समझ सुनन्दा इसका ठीक-ठीक लालन-पालन नहीं करेगी, इस आशंका से दूरदर्शी सेटने सुनन्दाके सामने यह भेद प्रकट नहीं किया कि यह किसी दूसरेका पुत्र है ।
SR No.090172
Book TitleGadyachintamani
Original Sutra AuthorVadibhsinhsuri
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1968
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size20 MB
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