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________________ -पुत्रोत्पत्तिश्च ] प्रथमो लम्भः संचरत्सायंतनसमीरनिभेन निःश्वसन्त्यां निशायाम्, तनुतरबिसलताभङ्गिमुपहसतीव विकसति विकचदलनिचयधवलितदशदिशि कुमुदाकरे, कुमारोदयसमयसमुन्मेषिहर्षपरवशसुरसंतानिते संतानकुसुमप्रकर इव तारकानिकरे निरन्तरयत्यम्बरम्, आविर्भवदवनिपतनयातपत्र इव पाकशासनदिशि दृश्यमाने यामिनोप्रणयिनि प्राप्तवैजननमासा महिषी सा प्राणनाथविरहदुःख. भारान्तरितप्रसववेदना तस्मिन्नेव पितृ निवास बालचन्द्रमनिय विचमाश बिपश्चिल्लोकनयन- ५ हारिणं हरिताश्वमिव पूर्वकाष्ठा काष्ठाङ्गारपर्यायतिमिरध्वंसिनं सूनुमसूत । ६३५. सुतसुधासूतिदर्शनसमासादितजीवितवहनवात्सल्या तज्जन्ममहोत्सवसंभ्रमाभावपुनरुत्तविषादा पुत्रमङ्के निधाय प्रलपितुमारभत–'यस्य जन्मवानिवेदनमुखरा हरिष्यन्ति कचास्तेषां कलापे समूह इव मेचके कृष्णे, अभिनवे नूतने तमसि तिमिरे भुवनं लोकं कपचयति च्याप्नुवति सति, निशायां रजन्या नरेशविनाशशोकादिव नरेन्द्र मरणखेदादिव संवरन् यः सायन्तनसमीरः सायंकालिक- १० पवनस्तस्य निभेन व्याजेन निःश्वसन्त्यां सत्याम्, विकचदलानां प्रफुल्लपत्राणां निचयेन धवलिताः शुक्लीकृता दश दिशो येन तस्मिन् तथाभूते कुमुदाकरे, अनुसरा अतिशयेन कृशा या बिसलता मृणालवल्लो त भगिनी नश्वरां संसारभङ्गी भवपरम्पराम् उपहसतीष विकसति सति, तारकानिकरे नक्षत्रनिचये कुमारस्य जीवन्धरस्योदयो जन्म तस्य समये समुन्मेषी प्रकटितो यो हर्षरतस्य परवशा विधशा ये सुरा निलिम्पास्तैः संतानिते प्रसारिते संतान कुसुमप्रकर इव कल्पपादपप्रसूनप्रञ्चय इव अम्बरं गगनं निरन्तरयति सति, २५ पाकशासनदिशि प्रारयाम् , यामिनीप्रणयिनि निशापतौ चन्द्र इति यावत् , आविर्भवन् प्रकटीभवन् योऽवनिपतनयो महीपतिपुत्रस्तस्यातपत्र व छत्र इव दृश्यमाने विलोक्यमाने सति, प्राप्तो चैजननो मासो यथा सा समुपलब्धप्रसूतिसमया सा महिषी विजया, प्राणनाथस्य विरहेण वियोगेन यो दुःखभारस्ते. नान्तरिता प्रसववेदना प्रसूतिपीडा यस्या तश्राभूता सती तस्मिन्नेव पूर्वोक्त एवं पितृनिवासे श्मशाने पश्चिमाशा प्रतीची बालचन्द्रमसमिव बालशशिनमिव, विपश्चिल्लोकनयनहारिणं विद्वजननयनवशीकरण- २० धुरीणं पूर्वकाष्ठा प्राची हरिताश्वमिव दिवाकरमिव काष्ठाकारः पर्यायो यस्य तत् तथाभूतं तिमिरं ध्वंस. यतीत्येवं शीलं सू नुम् असूत उत्पादयामास । ६३५. सुतसुधासूतीति-सुप्त एवं सुधासूतिश्चन्द्रस्तस्य दर्शनेन समासादित प्राप्तं जीवितवहने जीवनधारणे चारसल्यं यया सा, तस्य पुत्रस्य जन्ममहोत्सवस्य संभ्रमः संभोमस्तस्याभावेन पुनरुक्तो रूप स्त्रियोंके केश समूहसे काला नूतन अन्धकार जब संसारको व्याप्त करने लगा, राजाके २५ । मरणरूपी शोकके कारण सब ओर चलती हुई सायंकालीन वायुके बहाने मानो जब रात्रि इवासोच्छवास छोडने लगी. खिली कलिकाओंके समहसे दशों दिशाओंको सफेद-सफेद करने वाला कुमुद चन जब अत्यन्त सूक्ष्म मृणालरूपी लताके समान टूट जानेवाली संसारकी पद्धतिका मानो उपहास कर २० था, कुमारके जन्म के समय प्रकट होनेवाले हर्षसे विवश देवोंके द्वारा फैलाये हुए कल्पवृक्ष के पुष्प समूह के समान जब ताराओंका समूह आकाशको ३० व्याप्त कर रहा था, और प्रकट होते हुए राजपुत्रके छत्रके समान पूर्व दिशामें जब चन्द्रमा दिखाई देने लगा तब दश मासको प्राप्त एवं प्राणनाथके विरहजन्य दुःखके भारसे जिसकी बेदना दब गयी थी ऐसी विजया रानीने उसी श्मशान भूमिमें जिस प्रकार पश्चिम दिशा विद्वानों के नेत्रोंको हरनेवाले बाल चन्द्रमाको और पूर्व दिशा अन्धकारको नष्ट करनेवाले सूर्यको उत्पन्न करती है, उसी प्रकार काष्ठांगाररूपी अन्धकारको नष्ट करनेवाला पुत्र उत्पन्न किया। ३५ ६३५. तदनन्तर प्रभारूपी चन्द्रमाके देखनेसे जिसे जीवन धारण करनेका स्नेह प्राप्त हुआ था और पुत्रके जन्म सम्बन्धी महोत्सवके समय होनेवाले संभ्रमके अभावसे जिसका
SR No.090172
Book TitleGadyachintamani
Original Sutra AuthorVadibhsinhsuri
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1968
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size20 MB
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