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________________ पञ्चमो लम्मः - विवाहवृत्तान्तः] २४॥ म्भितमन्मथव्यथः कुमारोऽप्येकामपि त्रियामां सहस्यामां सर्वथा निश्चिन्वन्पश्चिमे यामे यामिनी- . स्वामिन्यपि स्वामिरहःसंभोगसमुद्वोक्षणत्रपयेव तिरोदधति, रतिव्यतिकरणविशीर्णबधूवरचिकुरविच्छुरितसुमनसीव विच्छायतामुपगच्छत्युनिकरे, निर्दयविमर्दाश्यान मिथुनाङ्गसंगतकुङ्कुमपङ्कपराग इव प्रसरति प्रसवरजसि, पुष्पवतीः स्पृष्ट्वा लताः पुनः स्पर्शभोत्येव शनैश्चरति समवगाढसरसि मरुति, सद्योविकचन्मणीचकनिचयमनोहारिणि महीरुहनिकरे निरन्तरनिस्यन्दिमकरन्दधारा ५ दम्पतिघटनार्थमम्बुधारामिवावर्जयति, स्फुटितकुसुमपण्डोद्भासिनि दीपमण्डितदीपदण्ड इव दृश्यमाने सनीड़गतचम्पकाविटपिनि, अतिरफारतया बहिःकुरज्जायापतिराग इब्रोन्मिपत्युपोरागे, मन्मथव्यथा कामपीडा यस्य तथाभनोऽयं कुमारोऽपि एकामपि त्रियामा रजनी सहस्रयामां महनं यामाः प्रहरा यस्यां तथामा सर्वथा सर्वप्रकारेण निश्चिन्वन् पश्चिमे यामऽन्तिम प्रहर यामिनीस्वामिन्यपि शशिन्यपि स्वामिनो रहासंभोगस्य विजनसुरतस्य समुद्रीक्षणेन या त्रमा होस्तव निरीदनि सति अन्तर्दधति सति, १० रतिव्यतिकरण रतिव्यापारण विशीर्णा विखस्ता ये वधूवरचिकुरा दम्पतिकशास्तेषु विच्छुरित: सुमनाः पुष्पं तस्मिमिव उडुनिकर नक्षत्रनिचय विच्छायता निलभताम् उपगच्छत्ति सति, निर्दयविमन निर्दग्रालिङ्गनेनायानः शुष्को मिथुनस्य दम्पत्योरङ्गसङ्गतकुमपरागः शरीरसंगतकाररजस्तस्मिन्निव प्रसवरजसि कुसुमपरागे प्रसरति सति, पुष्पवतीः कुसुमयुक्ताः पक्षे रजस्वला लता वल्लरीः पक्षे नायिकाः स्पृष्ट्वा समवगाई सरो यन तथाभूते जलाशये निपत्य कृतस्नाने मुरुति पवने पुनःस्पर्शभीत्येव भूय.स्पर्शमय नेव शमन्दं चरति सति, १५ मगो झटिति विकचतां विकलता मणीचकानां पुष्पाणां निचयेन समृहन मनोहारिणि चेतोहरे महारहनिकरे पादपप्रचये दम्पति घटनाथ वधूवरमलनाथम् अम्बुधारामिव जलधारामिव निरन्तरमनवरस निस्यन्दिनी प्रवहमाना या मकरन्दधारा ताम् आवर्जयनि सति दुनि सति, म्फुटितानां विकपितानां कुसुमानां पुष्पाणां पण्डेन समूहेनोहासते शोभत इत्येवं शीलस्तस्मिन् सनीडगपश्चापो चम्पकविटपी च सस्मिन् निकटस्थितचायतरी दीपमगिद्धतः शोभितो यो दीपदण्ड: 'समाई' इति हिन्द्या प्रसिद्धस्तम्मिभित्र रश्यमाने विलोक्य- २० माने, भतिस्फारतया प्रचुरतया बहिःस्फुरन् प्रकटीभवन् जायाफ्योईम्पत्यो रागः प्रीतिरिव तस्मिन् उघोरागे व्यथासे युक्त जीवन्धरकुमार भी तीन पहरोंवाली एक गात को हजारों पहरोंवाली निश्चय करते हुए रात्रिके पिछले पहर घरके बगीचामें गये। उस समय स्वामीके एकान्त संभोगको देखने की लज़ासे ही मानो चन्द्रमा छिपा जा रहा था। संभोगके समय छीना-झपटीके कारण विखरे हुए वधू-वरके केशोंमें लगे फूलों के समान नक्षत्रों का समूह निष्प्रभताको प्राप्त हो रहा २५ था। निर्दय आलिंगनसे सूखी स्त्री-पुरुपोंके शरीरमें लगो केशरके पंककी परागके समान फूलों की पराग इधर-उधर उड़ रही थी। पुष्पवती ( पक्ष में ऋतुधर्मसे युक्त) लताओंका छूकर तालाबमें अवगाहन करनेवाली वायु "अब फिरसे स्पर्श न हो जाय' इस भयसे ही मानो धीरे-धीरे चल रही थी। तत्काल खिले हुए फूलोंके समूहसे मनको हरण करनेवाले वृक्षों के समूह, वर-वधूको मिलाने के लिए जलधारा के समान निरन्तर झरनेवाली मकरन्दकी धाराको ३० धारण कर रहे थे । खिले हुए फूलों के समूहसे सुशोभित निकट में स्थित चम्पाके वृक्ष दीपोंसे सुशोभित समाईयोंके समान दिखाई दे रहे थे। अधिकताके कारण बाहर फैलते हुए स्त्री १. क० मणिकचकनिचय । ग० मणि चकचकनिषध । मणिरिब स्थित इति टि ।
SR No.090172
Book TitleGadyachintamani
Original Sutra AuthorVadibhsinhsuri
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1968
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size20 MB
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