SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 316
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Dipamuide.... गद्यचिन्तामणिः [१८५ क्षेमपुर्या:पद्मिनीसौखसुप्तिके पथिक जननेने कोकमिथुनमित्रे मित्र सुदर्शनभित्राय दर्शयितुमिवाध्वान मदधे. रुन्मज्जति, जलनिधिमग्नान्मग्नस्य' रवेश्चिरनिरुद्ध निसृष्टोच्छास इव नि. सरति युमनःसंसर्गसुरभौ गोसर्गमातरिश्वनि, दिनपतिसंभोगव्यतिकरविमर्दनाश्यानदिन श्री कुजनुभामाङ्गराग इव प्रतिदिशं प्रसर्पत्यरुगरोचिपि, विकचकुसुम कलिकाकलितशिव रशोभिन: शामिनः सौख रात्रिक इव ५ संश्रयति शंकारमुरितकभि पटादकदम्बके, कुमुदिनोषगडे च प्राति वेश्यस्थानस्पशाम्भोजिनीनां बन्धोः प्रत्यूपाउम्बरस्थोद यादम्बरम यतोव धटितदलपुट कवाटे बाट पिति. तत्रोपसरन्तं जरन्तं कमपि पामरं कुमारः सादरं निवण्यं परमनिर्धाणपद सर्पता प्रथम सोपानभुतं गृहमेधिनां वनावनिम् आखेटुषि प्राप्तवति सति, सागरः सदानं यस्य तथानः समुद्रस्थितो यो बाडवाणीट योनि बंडवानलस्य शिखापरलेन चालाकलाप नालाइ इन व्यास पाटल गरी नयां वपुः शरीरं यस्य १० तश्राभूत, सुखेन सुप्तमिति पृच्छति लाखसुप्तिकः पझिनीनां कमलिनीनो सांत्रसुतिक इति पभिनी पौरख सुप्ति कस्तस्मिन् कमलिनीविकासकर्तरीति यावत्, पथिकजनानामध्यगानां नेत्रं मार्गदर्शक तस्मिन् , कोकमिथुनस्य चक्रवाकयुगलस्य मिनं सह चरस्तस्मिन् , मिले सूर्य सुदर्शनभित्राय जीवंधराय अध्वानं मार्ग दर्शवितुमिव उदधेः सागरान उन्माजति सति उदयमाने सति, जलनिधी सागर आदी मग्नः पश्चादुन्मग्नस्तस्य रवेः मूर्यस्य आदी चिरनिरुद्धः पश्चान्निसृष्टो निर्मुको य उच्छ्यासस्तस्मिन्निव सुमन सां पुष्पाणां ५ संसगेंग सुरभी सुगन्धी गोसगमातरिश्वनि प्रत्यूषपवने निःसरति निर्गच्छति सति, दिनयतेः सूर्यस्य यः संभोगव्यतिकरः सुरतम्यापारस्तस्त्र विमर्दन गात्रोपलपणाश्यानः शुको यी दिनधिया वासरलक्ष्याः कुचकुम्भयोः स्तनकलशयोः कुकमाङ्गग इव काश्मीरविलपर इव अरुणरोचिपि रक्तभमायां प्रतिदिर्श प्रतिकाईप्रसपति सति. विचन्त्या विकसन्त्यो याः कुसमलिकास्ताभिः कलिनेन शिखरण अग्रभागेन शोभत इयंत्रं शीलान् शाखिनो घृशान् सुन्वन रात्रिधतीतति पृच्छति सौखरात्रिकस्तस्मिनिष झंकारंग २० मुखरिताः शब्दिताः ककुभः काटा येन तस्मिन् घट्पदकदम्बक भ्रमरसमूह संश्रयति सति समुपगच्छति सति, कुमुदिनीषण्ड च कैरविर्ण:कल्लाप च प्रनिदेशस्य भावः प्रातिश्यं प्रतिवासत्वं तस्य स्थानं स्पृशन्तीति प्रतिवेश्यस्थानस्पृशस्तासाम् प्रतिवेशिनीनाम् अम्भोजिनीनां कमलिनीनाम् बन्योः सहचरस्य सूर्यस्यति यावत् प्रत्यूषाडम्बरस्त्र प्रमातादम्बरस्योदयाटम्बरमुदयमवममृष्यतीव-असहमान इव घटिता दलपुट कवाटा यन तथाभूत इव बाढमत्यर्थ स्वपति सति, सत्र बनवसुधायाम् उपसरन्तं समापमागच्छन्तं जरन्तं २५ वृद्धं कमपि पामरं प्राकृतजनं सादरं सानं निवग्यं दृष्ट्वा परमनिर्वाणपदं निःश्रेयसपदम् उपसर्पतां गच्छतां समुद्र में रहनेवाली बड़वानलकी ज्यालाआंके समूहसे व्याप्त हुएके समान जिसका शरीर लाललाल हो रहा था, जो कमलिलियोंसे सुखदायनका समाचार पूलनेवाला था, पथिकजनोंका मेत्र था और चकया-चकरियांका मित्र था ऐसा सूर्य जवन्धरकुमारको मार्ग दिखाने के लिए हो मानो समुद्र से उन्मग्न हुआ-उदित हुआ। समुद्र में चिरकाल तक टूबे रहने के बाद ३० उखरे हुए सूर्य की बहुत देर तक रोकने के बाद छोड़ी हुई साँस के समान फूलोंके संसर्गसे सुगन्धित प्रातःकालको वायु बहने लगी । सूर्यके संभोग-सम्बन्धी उद्योग में होनेवाले आलिंगनसे सूखे हुए दिनलक्ष्मीके स्तन कलशपर लगे कार के अंगणगक समान प्रत्येक दिशामें ऊपाकी लाल-लाल किरणें फैलने लगीं। झंकार से विदाओको मुखरित करनेवाला भ्रमरों का समूह 'रात्रि सुखसे बीती' यह समाचार पूछने वाले के समान विकसित फूलको कलिकाआंसे युक्त ३५ शिखरोंसे सुशोभित वृक्षों के समीप जाने लगा और कुमुदिनियोंका समूह पड़ोसमें स्थित कमलिनियों के बन्धु-सूर्य के प्रातःकाल सम्बन्धी आडम्बरको न सह सकने के कारण ही मानो कलिकारूपी किवाड़ लगाकर सोने लगा। उसी समय पास में अ:ते हुए किसी वृद्ध साधारण १. म० जलनिधिनिमग्नान्मन्नस्य । २. म० प्रत्यूपाःम्बरमनुष्यतीव ।
SR No.090172
Book TitleGadyachintamani
Original Sutra AuthorVadibhsinhsuri
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1968
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy