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________________ जीवंधरस्य प्रस्थानम् ] सक्षमो लम्भः धर्ममपदिश्य प्रदिश्य चार में निजाहार्यमाहार्यपर्यायावरणविगमादव्याजरमणीयस्ततोऽयमवजत् । १८६. ततश्च क्रमश: शशाङ्क इव सद्भिः संगच्छमानः कायैकदनतपोधन निकायतया निवारितनिखिल वापदोपद्रवानद्रोन्सार्वकालिकजलप्रवाहा वाहिनी: सर्वसौख्यास्पदानि जिनपदानि सर्वलोकनानि तोनि च तत्तदेशोगदर्शिताभिशापारि' यपशिशपपारतमयप्रशमनाय श्व विदटव्यां निजहदय इव निर्मले स्फटिकतले निपोदन्त्यकृतनिधिलवनकुसुमसौरभेण नीरन्ध्रि- ५ सत्राण न्फ्रेग गन्धना गिदगित किंचिद्विवतितविकः सविलासकरशाखावलम्बितसिताप्रथमसोपान भुम्मायसोपानरूपं गृह बिना धर्मम् उपदिश्य अस्मै पामराय निजाहाय स्यामरणसमूह प्रदिश्य च प्रदाय च हायपायमाभरणपं यदावणं तस्य विगमाद्रीभावात अव्याजरमणीयो निवर्गसुभगोऽयं जीवंधरः ततः कादरप्रदेशात अनजा। १६. ततीनि-ततश्च तदनन्तरं च शशाङ्ग इव चन्द्र इव सदिनक्षत्रैः पधे सज्जनः संगच्छ- १० मानो मिलन काय एव शरीरमवक धनं येषां तथाका ये तपोधनाः साधो निप्परिग्रहयतयस्तेषां निकायस्या स्थानत्वेन निवारिता दृरीता निखिलाः समन्ता; सापडोपवा धनजन्तूत्पाता येपु सथाभूतान् अदीन् गिरीन् 'अद्विगोत्रनिरिणावाचलशैलशिलोयाः' इत्यमरः सावकालिकः शश्वस्थानी जलप्रवाहस्तीयपूरो पासां तथाभूना चाहिगीनदः, सर्वसोवान निविल सुखाराम् आस्पदानि स्थानानि जिनपदानि जिनस्थानानि जिन मन्दिराणीति यावत् 'पदं ब्यासिलवाणस्थान लक्ष्मानि प्रस्तु' इत्यमरः । सर्वलोकप्रार्थ्यानि १५ निखिल जनवाछितानि तत्तद्देशीयालतदेशसम्पन्धिनो दर्शिताः प्रकटिता अतिशया सेषु तथाभूतानि तीर्धानि च तीर्थस्थानानि च पश्यन्न , पविश्रमेण मार्गदेन यत्पारवश्यं परतन्त्रत्वं तस्य प्रशमनाय शान्तकरणाय कचित् कस्वांचित अध्यानरम्यान्याम् निजहृदय इव स्वीयतसीव निर्मले स्वच्छ स्मारिकतले निषीदन् समुपविशन न्यकृतं तिरस्कृतं निखिलवनकुसुमानां समग्रवन पुप्पाणां सौरभ सौगन्ध्यं न तेन नोरन्द्रितं निश्छिद्रितं Bणरन्नं नासाविवरं येन तेन गन्धेन आकृयः सन् ‘किमिदम् ?' इति हेतोः २० मनुष्यको बड़े आदरसे देख जीवन्धरस्वामीने उसे परमनिर्वाण पदकी ओर जानेवाले लोगों के लिए पहली सीढ़ीके समान गृहस्थ धर्म का उपदेश दिया, अपने आभूषण दिये और उसके बाद आभूपणरूपी आवरणके दूर हो जाने से स्वाभाविक सुन्दरताको धारण करते हुए,वे वहाँ से आगे गये। ६१८६, तदनन्तर क्रम-क्रमसे चन्द्रमाके समान सत्पुरुपों ( पक्ष में नक्षत्रों ) के साथ २५ मिलते हुए जीवन्धरस्वामी शरीररूपी एकधनसे युक्त तपस्वियोंका स्थान होने से जिनमें समस्त जंगली जानवरोंके उपद्रव दूर हो चुके थे ऐसे पर्वतों को, जिनके जलका प्रवाह हमेशा बहता रहता था ऐसी नदियोंको, समस्त सुखोंके स्थानभून देशों को तथा समस्त मनुष्यों के द्वारा प्रार्थनीय एवं तत्तद्देझीन अतिशयोंसे सहित तीयोंको देखते हुए मार्गकी थकावटसे उत्पन्न परवानाको शान्त करने के लिए किसी अटवीमें अपने हैदयके समान निर्मल स्फटिकके ६० शिलातलपर बैठ गये। उसी समय समस्त वनदे फूलों की सुगन्धिको तिरस्कृत करने एवं नासिका के छिद्रोंको व्याप्त करने वाली सुगन्धि आया | उससे आकृष्ट हो 'यह क्या है ?' यह जानने के लिए ज्या ही उन्होंने पीठकी हड्डोको धुमाकर देखा त्यों ही मैथुनको इच्छा रखनेवाली कोई युवती उन्हें दिखाई दी। वह युवती हाव-भाव दिखानी हुई अंगुलिसे अपने सफेद वस्त्रका अंचल पकड़े हुई थी, फूली हुई वनकी लत्ताके समान उसका सौन्दर्य था और ऐसी ३५ जान पड़ती थी रानो बहुत देर से वह खड़ी हो । जीवन्धरकुमार बैलकी कान्दोलके समान १. म० तत्तदेशोभाशयानि । २. का. कि किमिदमति ।
SR No.090172
Book TitleGadyachintamani
Original Sutra AuthorVadibhsinhsuri
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1968
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size20 MB
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