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________________ गचिन्तामणिः [ १८२ क्षेमपुर्याः - परिदेवनं च योगपद्येन भजन्ती तदशनिपतनादपासुरिब भूमी पपात । तथाविधामनस्यामिमां वयस्येवाविदितकृच्छामातनोन्मूी ॥ १८४ एवमतिमोहविधुगं वरोपलम्भवरार्थितया निभृतेन्द्रियवृत्ति पृथ्वीशयने प्रतिशयानागिय शयानां फणिनीमिव फगामणिना पद्मिनीमिव पबन्धुना रतिमित्र त्र्यम्बकललाटाम्बक५ दहनदग्धमदनेन दयितेन विप्रयुक्तामतिदयावहां जोवंधरदयितां निशाम्य, नितिरधिकनिर्वेदा खेदप्राचुर्शदुद्धरणविहरतेन हस्तद्वयेनोक्षिप्याङ्गजामङ्कमारोप्य, तदङ्गमतिपांसुल क्षालयन्तीव क्षरवनु जलगि मलकापूरपूरबिलुलितमलयजस्थासकस्थगितस्फा रहारशीफरशिशिरोपचारैनिवारित - प्राणप्रयाणां विधाय, 'विधिविलसितमिदमतिनृशंसम् 1 हंसगमनेयमेवमप्य स्मदीक्षणाभ्यामहो दीर्घश्वासमायताच्छवासम्, आस्य मुखं परिदेधनं विलापं च योगपद्येन एककालावच्छेदन भजन्ती प्राप्नु१० वन्ती स एव अशनिबंधं तस्य पतनं तस्मात् अपासुरिव मृतव भूमौ पृथिव्यां पपात । तथाविधमामनस्यं नस्यारत साइन यांचयाम् इभा मिश्रियम् वयस्क सहरीव मूळ निःसंज्ञता अविदित कृच्छ्रामज्ञातदुःरखाम् आतनोत् चकार । 13. एवमिति-एबमनेन प्रकारेण, अतिमोहन रागातिशयेन विधुरा दुःखिताम्, वरस्य पन्युरुपलम्मः प्राप्तिरेव परो देवामृतास्मानिया निभृता निश्चलेन्द्रियवृत्तिर्यस्यास्तथाभूतां पृथ्वीशयने१५ ऽवनिशव्यायां प्रतिशमान!भित्र शयनं कुर्वागामित्र, फणामणिना नागन विप्रयुक्त विरहितां शयानां फणिनीमिव नागीमिय, पद्मबन्धुना सूयण विप्रयुक्तां पमिनी मिव कमलिनीमिव, भ्यम्बकस्य भवस्य ललाटा__म्बकदहनेन निटिल नेवानलेन दग्धो भस्मीभूतो यो मदनो मारस्तंन विप्रयुक्तां रतिमिव, दयितेन वल्लभन जीवंधरेण विप्रयुक्ताम् अतिदयावहां दोनो जीवंधरदायितां क्षमश्रियं निशाम्य दृष्ट्वा अधिकनिर्वदा सातिशय. खेड़ा नितिः सेमश्री सवित्री खंदप्राचुर्यात दुःखातिशयान उद्धरणे विहस्तस्तन-उत्थापनविदर्शन हतद्वयन २० करयुगलेन उत्क्षिप्य अङ्गता पुज्रीम् अङ्घ कोडम् आरोप्य स्थापयित्वा, अतिसुलं धूलिमलिनं तदनं तस्करी क्षादश्रुजलैगंलदभुमरिलः क्षालयन्तीव धावमानेव, हिमजलकपूरपूराभ्यां नुहिनतीयवनसारपूराभ्यां विलुलितो ___ घृष्टो यो मलयजश्वन्दनं तस्य स्वासकास्तिककानि तैः स्थगिता यः स्फारहारो विशालमौक्तिकयष्टिः स च शीफरशिशिरोपचाराश्चातिशीसलोपचाराश्च तैः निवारितं दुरीकृतं प्राणप्रयाणं ययास्तथाभूतां विधाय कृत्वा _ 'इदं विधिविलसितं देवचेष्टितम् असिनुशंसमतिकरम् । इंसस्येव गमनं यस्यास्तथा भूता इयम् एवमपि-२५ निष्प्राणकी तरह पृथिवीपर गिर पड़ी । उस प्रकारकी विकलताको धारण करनेवाली क्षेमश्री को सखीके समान मूच्छाने अविदितकृच्छ्रा-दुःखानुभवसे रहिन कर दिया। ६४. इस प्रकार जो अत्यधिक मू से दुखी थी, वर-प्राप्तिकी उत्कट अभिलापासे जो इन्द्रियांको वृत्तिको निश्चल कर पृथिवीरूपी शय्याएर शयन करती हुई-सी जान पड़ती थी, जो सर्प से गहित सर्पिणीके समान, सूर्यसे रहित कमलिनीके समान, और महादेवके ललाट३० स्थ नेत्रकी अग्नि से जले हुए कामदेवसे रहित र त के समान पति से वियुक्त हो अत्यन्त दयनीय • अवस्थाको धारण कर रही थी ऐसी जोबन्धरकी स्त्री-मश्री को देख उसकी माता निर्वृति अधिक खेदको प्राप्त हुई । खदकी अधिकतासे ऊपर उठने में असमर्थ दोनों हाथोंसे उसने पुत्रीको उठाकर गोद में बैठा लिया और धूलिसे धूसरित उसके शरीरको झरते हुए अश्रुजलसे धोती हुईक समान वर्फका जल और कपूर के समूहसे मिश्रित चन्दनके लेपसे आच्छादित ३५ विशाल हार एवं अत्यधिक शीतलोपचारोंसे उसे प्राणों के प्रयाणसे रहित कर दिया। 'अहो ! यह देवकी लीला अत्यन्त क्रूर है। यह इंसगमना ऐसी अवस्थामें हमारे नेत्रोंसे कैसे देखी १. क.० ५० --इमिति नृशंसम् । २. क. 'अपि' नास्ति ।
SR No.090172
Book TitleGadyachintamani
Original Sutra AuthorVadibhsinhsuri
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1968
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size20 MB
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