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________________ -मसफलवृत्तान्त:] एकादशो सम्मः ४०५ पल्याद्विश्वस्य मावेन दोघं निःश्वस्य 'हा नाथ, हतास्मि पापाहम्' इत्यालप्य सत्वरमेनं हरि धरातलादुत्क्षिप्य करतले गृह्णतो चात्मानं 'कुट्टिन्या मया पतिद्रोहः कुतः कारणात्कृतः' इति पुन: पुनः निन्दन्ती कृतगाढपरिष्वङ्गा पाणितलविकीर्यमाणपयःशीकरशीफरेण शिशिरोपचारेण चिराय जीवितेश्वरं जीवयामास । प्रियाङ्गपरिष्वङ्गेण प्रत्युज्जीवित इव प्रीणानः प्रतारणचतुरः स शाखामृगः शाखिशाखान्तरलम्बमानमम्बरव्यापिपाकसुलभसौरभरचितजिह्वाचापलं पनसफलमानोय ५ मुद्गफलानुकारिभिः कराङ्गुलीभिर्दलयन्नात्मदयिताय तस्ये ददो। तदवसरे तत्र नियुक्तो नातिबाल: कोऽपि वनपाल: पलायमिथुनमिदं फलमेतदपजहार । Pe विश्वस्य विश्वासं कृत्वा भावेन हृदयेन दीर्घमायत निःश्वस्य हा नाथ ! पापा पापवती अहं हतास्मि तास्मि' इति आलप्य सत्वरं शीघ्रम एनं हरिबानरम धरातकाप्रथिवीतलात उक्षिप्य-उत्थाप्य करसले पाणितले गृहती आत्मानं च स्वं च 'मया कुट्टिन्या पतिद्रोहः कुतः कारणात् कृतः' इति पुनःपुनभूयो १० भूयो निन्दन्ती कृतो विहितो गाढः परिष्वङ्गः परिरम्भो यया तथाभूता 'परीरम्मः परिष्वङ्गः संश्लेष उपगृहनम्' इत्यतरः, पाणितलेन हस्ततलेन विकीर्यमाणा: प्रक्षिप्यमाणा ये पयः कस जलबिन्दवस्तैः शफिरोऽतिशीतस्तेन शिशिरोपचारेण शीतलोपचारेण चिराय दीर्घकालेन जीवितेश्वरं बल्लभ जीवयामास संशित चकार । मिया या वल्लमाया अङ्गस्य परिवङ्गेण संश्लेषण प्रयुजीवित इव पुनर्जीवित इव प्रीणानः संतुष्यन् प्रतारणचनुरः कपटपटुः स शाखामृगो वानरः शासिनो वृक्षस्य शारखान्तरं शाखामध्ये लम्बमान संसमानम् , १५ अम्बरच्यापिना गगनच्यापिना पाकसुलभसारमेण परिणानसुलझसौगन्ध्येन रचितं विहितं जिह्वाया रसनायाश्चापलं सतृपगत्वं येन तथाभूतं पनसफलं कटकिफ फलम् भानीय समाहृत्य मुद्गस्य फलमनुकुवन्त्येवं शीलास्ताभिः कराङ्गलीमिहलालाभिः दल यन् खण्डयन तस्यै पूर्वोक्तायै भास्मदयिताये स्वप्रियायै ददौ । तदवसरे तत्काले तनाकोडे नियुनः प्राप्तनियोगो नातियाकः प्रोड इव कोऽपि वनपाको वनरक्षक इदं मिथुनं दम्पती पलाययन् विद्रावरन् एतत् पनसफकम् अपजहार ।। अभिनय करता हुआ बोला कि 'हे प्रिये ! मुझे देखो, मैं मर रहा हूँ' यह कहकर उसने आँखें फेर दी और क्षण-भर में ही वह मृतककी तरह पृथिवीपर गिर पड़ा। बेचारी वानरीने उस मायाकृत बनावदी मरगको सचमुचका मरण समझ लिया और वह स्त्रीपर्यायमें सुलभ चपलताके कारण लम्बी साँस भरकर कहने लगी कि 'हाय नाथ ! मैं पापिनी मर गयी। उसने शीघ्र ही इस बानरको पृथिवीतलसे उठाकर अपने हाथमें लिया और 'मुझ कुट्टिनीने पति द्रोह २५ किस कारण किया ?' इस प्रकार कह बार-बार अपनी निन्दा करने लगी। अन्त में वह गाढालिंगन कर हस्ततलसे बिखेरे हुए जलके छोटोंसे शीतल शिशिरोपचारसे बहुत देर वाद पतिको जीवित कर सकी । प्रियाके शरीर के आलिंगनसे फिरसे जीवित होते हुएके समान वह वानर बहुत प्रसन्न हुआ। अन्त में वह मायापटु वानर वृक्ष की शाखाओंके बीच लटकते एवं परिपाकसे सुलभ आकाशव्यापी सुगन्धिके कारण जिह्वाकी चपलताको उत्पन्न करनेवाले ३० कटहलके फलको तोड़कर लाया और मूंगकी फलियोंके समान आकारको धारण करनेवाली हाथकी अंगुलियोंसे विदीर्ण कर उसने वह फल अपनी प्रियाके लिए दिया। उस अवसरपर वहाँ नियुक्त किसी वनपालने जो अवस्थामें बिलकुल बालक. नहीं था अर्थात् बालक और यौवन के बीच की अवस्थाको धारण करनेवाला था, वानर-वानरियोंके इस युगलको भगाकर यह फल छीन लिया। १. मद्गफलाकाराभिः ।
SR No.090172
Book TitleGadyachintamani
Original Sutra AuthorVadibhsinhsuri
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1968
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size20 MB
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