SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 7
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ . गद्यचिन्तामणिः मैंने धर्मका स्वरूप सुन सम्यग्दर्शन धारण कर लिया और अपने धृतिषेण पुत्रको राज्य देकर दीक्षा धारण कर ली । परन्तु मस्भक व्याघिसे पीड़ित होनेके कारण मैंने यह तपस्वीका वेष धारण कर लिया है, मैं सम्यग्दृष्टि हूँ, तुम्हारा धर्म-बन्धु हूँ । इस प्रकार तपस्वीके वचन सुन तथा उसकी परीक्षा कर गन्धोत्कट सेठने उसके लिए मित्रों सहित जीवन्धर कुमारको सौंप दिया। तपस्वीने थोड़े ही समय में जीवन्धरकुमारको समस्त विद्याओंका पारगामी बना दिया और स्वयं फिरसे संयम धारण कर मोक्ष प्राप्त किया। तदनन्तर कालकूट नामक भीलोंके राजाने अपनी सेना के साथ नगरपर आक्रमण कर गायों का समूह चुर से आनेका उमारिने घोषणा करायी कि मैं गायोंको छुड़ानेवालेके लिए गोपेन्द्रकी स्त्री गोपीसे उत्पन्न गोदावरी नामकी कन्या दूंगा । इस घोषणाको सुनकर जीवन्धरकुमार काष्टांगारिकके पुत्र कालांगारिक तथा अन्य साथियोंके साथ कालकूट भीलके पास पहुंचे और उसे परास्त कर गायें वापस ले आये। इस घटनासे कुमारकी बहुत कीर्ति फैली कुमारने अपने सब साथियोंसे कहा कि तुम लोग एक स्वर से अर्थात् बिना किसी मतभेदके राजा काष्ठांगारिकसे कहो कि भीलको नन्दाव्यते जोता है । इस प्रकार राजाके पास सन्देश भेजकर उन्होंने पूर्व घोषित गोदावरी कन्या विवाहपूर्वक नन्दाढ्यको दिलवायी। 3 भरत क्षेत्र सम्बन्धी विजयार्ध पर्वतकी दक्षिण श्रेणीमें एक गगनवल्लभ नगर है उसमें विद्याधरोंका राजा गरुडवेग राज्य करता था । दैवयोग से उसके भागीदारोंने उसका अभिमान नष्ट कर दिया इसलिए वह भागकर रत्नद्वीप में चला गया और वहाँ मनुजोदय पर्वतपर एक सुन्दर नगर बसाकर रहने लगा । उसकी रानीका नाम धारिणो था और उन दोनोंके गन्धर्यदत्ता नामकी पुत्री थी। जब वह विवाह के योग्य अवस्थामें पहुँची तब राजाने मन्त्रियोंसे वरके लिए पूछा। इसके उत्तरमें मन्त्रीने भविष्यके ज्ञाता मुनिराज से जो सुन रखा था वह कहा--- "हे राजन् ! मैंने एक बार सुमेरु पर्वत के नन्दन वनमें स्थित विपुलमति नामक चारणऋद्धिके धारक मुनिराज से आपकी कन्या के वरके विषय में पूछा था तो उन्होंने कहा था कि भरतक्षेत्र के हेमांगद देशमें एक राजपुरी नामकी नगरी है। उसके राजा सत्यन्थर और रानी विजयाके एक जीवन्धर नामका पुत्र हुआ है वह वीणा के स्वयंवरमें गन्धर्वदत्तको जीतेगा। वही उसका पति होगा । राजाने उसी महिसागर मन्त्रीसे पुनः पूछा कि भूमि गोचरियोंके साथ हम लोगोंका सम्बन्ध किस प्रकार हो सकता है ? उसके उत्तरमें उसने मुनिराज से सेठ जो अन्य बातें सुन रखी थी वे स्पष्ट कह सुनायों— उसने कहा कि राजपुरी नगरी में एक वृषभदत्त रहता था, उसको स्त्रीका नाम पद्मावती था और उन दोनोंके एक जिनदत्त नामका पुत्र था। किसी एक १. गद्यचिन्तामणि आदि में गुरुने विद्याध्ययन समाप्तिके बाद अपना परिचय दिया है और कहा कि मैं विद्याधरोंके निवासस्थळमें लोकपाल नामका राजा था आदि । ... २. गद्यचिन्तामणि आदि में वर्णन है कि तपस्वीने विधाएँ पूर्ण होनेके बाद जीवन्चरको रत्नत्रयका उपदेश दिया और साथमें यह भी बता दिया कि तुम राजा सत्यन्धरके पुत्र हो । काष्ठांगारने तुम्हारे पिताको मार डाला था। यह सुन जीवन्धरकी कगार पर बहुत क्रोध उठा और उसे मारने को तत्पर हो गये परन्तु तपस्वीने समझाकर उसे एक वर्ष तक ऐसा न करने के लिए शान्त कर दिया । ३. गद्यश्विन्तामणि आदिमें उल्लेख है कि काष्ठांगारकी सेनाके हार जानेपर नन्दगोपने घोषणा करायी थी और विजय के बाद जब वह अपनी कन्या जीवम्धरको देने लगा तो उन्होंने न लेकर अपने मित्र पद्मास्यको दिलायी । ४. गद्यचिन्तामणि आदिमें गरुडवेगका नगर निव्यालीक बतलाया है तथा उसके भाग कर रसद्वीपमें बसने का कोई उल्लेख नहीं है । वरके विषय में मुनिराजकी भविष्यवाणी न देकर ज्योतिषियोंकी बात लिखी थी। जिनदत्त सेठ के बदले श्रीदठका उल्लेख है। काष्ठांसारिक के पुत्र काळांगारिककी कोई चर्चा नहीं है। किन्तु स्वयं काष्टांगारने भागत राजकुमारोंको उत्तेजित किया है । श्रीदश समुद्रयात्राके किए गया था, कौटते समय घर विद्याधरकी मायासे उसे लगा कि हमारा जहाज डूब गया है। वह उसके साथ विजयार्ध पर्वत पर स्थित निस्याकोक नगर में पहुँचता है।
SR No.090172
Book TitleGadyachintamani
Original Sutra AuthorVadibhsinhsuri
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1968
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy