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________________ । वृत्तान्तः ] चतुर्यो सम्भः २०३ र्तत च प्रहर्तुम् । तादात्विकोपायप्रयोगचतुरः कुमारोऽप्यनेकपमनेकप्रकारमायास्य, परिणमति तस्मिन्करिणि चरणमध्येन प्रविश्य, पृष्ठतो निरगच्छदतुच्छधी: । सा च मोचितापि कुमारेण मोचासमोरूमरिमातङ्गकृतातका समजनि । जनितमदनबेदनाविवशाङ्गी तन्यङ्गी तत्क्षणसमानीतमनुयायिभिरधिरुह्य चतुरन्तयातमन्तःप्रविष्टं कुमारमवलोकनितुमिवाधोमुखो, मुहुर्मुहरापतद्भिनिःश्वासरत्युष्णतया मर्मरिताधरपल्लवैराकुलितकुचोत्तरोया, निरुत्तरतया दत्तनमगिरः प्रियसखी: ५ खेदयन्तो विवेश विविधसंनिवेशकान्तं निशान्तम् । १३२. अथैनां तुहिनपरामर्शपरिम्मानपङ्कजिनीसच्छायां सत्वरमुपेत्य माता दुहितरं तादाविति -- तादाविकास्ताकालिका य उपाया रक्षासाधनानि तपां प्रयोगे चतुरो दक्षः अनुच्छधीविशालप्रतिभः कुमारोऽपि अनेकपं गजम् अनेकप्रकारं यथा स्यात्तथा आयास्य खखिन्नं विधाय तस्मिन् करिणि परिणमति तियगदन्तप्रहारं कतुमुद्यते सति चरणमध्यन पादमध्यन प्रविश्य पृष्टतः पश्चादागेन १० निरगच्छत् निर्जगाम । सा चेति-मोचासमोरुः कदलीतुल्यसविधः सा गुणमाला , कुमारेण जीवकेन मोचिताऽपि त्याजितापि गजेन्द्रादिति शेषः मारमातङ्गेन कामकरिणा कृत आनको यस्यास्तथाभूता समजनि । जनितति--जनितया समुरपझया मदनवेदनया कामपीच्या विवानि परायतान्यङ्गानि यस्यास्तथाभूता तन्वङ्गी कृशानी सा गुणमाला अनुयायिभिरनुगामिजनैः तत्क्षणं तत्काल समानीतं चतुरन्तयानं शिविकायानम् अधिल्य समधिष्टाय अन्तः प्रविष्टं हृदयमध्य प्रविष्टं कुमारं जीवंधरम् १५ अबलोकयितुमित्र द्रष्टुमिव अधोमुखी नम्रवक्ता, मुहुर्मुहुर्भूयोभूयः आपतभिर्निःसरद्भिः, अत्युष्णतया प्रचुरौप्पयतया ममरित शुष्कपत्रीकृताऽधरपालदा यस्तः निःश्वास. वासोच्छ्वासपबनः आकुलितं चञ्चलीकृतं कुचोत्तरीयं स्तनोपरिवस्त्रं यस्यास्तथाभूता निरुत्तरत्या मूकीभूतत्वेन दत्तनमगिरः प्रदत्तक्रीडावाशीकाः प्रहासिनीरिति यावत् प्रियसीः गियालीः खेदयन्तो विविधसंनिवेशै नारचनाभिः कान्तं मनोहरं निशान्तं भवनं 'निशान्तपस्त्यसदनं भवनागारमन्दिरम्' इत्यमरः । विवेश प्रविश्वती। २० ६१३२. अथैनामिति -अथ गृहप्रवेशानन्तरं तुहिनस्य हिमस्य परामर्शन संबन्धन परिम्लामा -.-..--......-- ...-. - --- .--. . -- उनपर प्रहार करने के लिए उन्नत हुआ । तात्कालिक उपायोंके प्रयोग करनेमें चतुर जीवन्धरमार भी उस हाथीको अनेक प्रकारसे खेदखिन्न कर ज्योंही वह तिरछा दन्त प्रहार करने के ए तत्पर हुआ त्योंही उसके पैरोंके बीचसे घुमकर पीछेसे निकल गये। विशाल बुद्धिके रक जो थे । केले के स्तभके समान जिसकी जाँचें थीं ऐसा गुणमालाको कुमारने यद्यपि २५ . श्रीके उपद्रव से छुड़ा दिया था तथापि बह कामरूपी हाथ के आतंक से युक्त हो गयी। उत्पन्न हुई कामको वेदनासे जिसका शरीर विवश हो रहा था ऐसी कृशांगी गुणमाला, संवकों के द्वारा तत्काल लायी हुई पालकीपर सवार हो घरकी ओर चली। उस समय उसका मुख नीचेकी ओर था और उससे ऐसी जा न पड़ती थी मानो हृदयके भीतर प्रविष्ट कुमारको खने के लिए ही उसने नीचेकी ओर मुख कर लिया था। बार-बार निकलती एवं तीर गरमोसे ३. अधर पल्लवको मर्मर-शुक पत्र-जैसा बना देनेवालो साँसांसे उसके स्तनकी चूनरी हिल रही थी। और कोड़ाके वचन कहनेवाली प्रिय सखियों को वह उत्तर न देनेके कारण खिन्न कर रही थी। इस तरह चलती हुई उसने नाना प्रकार की रचनाओस सुन्दर महल में प्रवेश किया। इ १३२. तदनन्तर तुपारके सम्बन्धसे मुरझायी कमलिनी के समान कान्तिका धारण ३५
SR No.090172
Book TitleGadyachintamani
Original Sutra AuthorVadibhsinhsuri
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1968
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size20 MB
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