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________________ - विजयवृत्तान्तः ] द्वितीयो लम्मः १५९ जनहृदयमिव करेण गृह्णत्, ईषदवगलितकुचांशुकं कुचकुम्भकुम्भिनो रतिरणसंरम्भाय घटयदिव मुखपटम्, विद्रावितविद्रुमच्छविना दन्तच्छदरागेण हृदयान्तर्गतरागप्राग्भारमिव प्रदर्शयत्, पलितपुरोभाग सौभाग्यचन्द्रचन्द्रिकोदमिव मन्दहसितममन्दादरा दाचारलाजनिकरमिब विकिरत, समारोपितचारुतरभ्रूलताचापं लक्ष्यभेददक्षतीक्ष्णकटाक्षशरमोक्षचतुरमबलारूपमनङ्गबलमसंख्यं प्रतिप्रदेशं प्रत्यदृश्यत । ८५. तदपि दर्शनप्रसादेनपरितोषयन्नुल्लोकहर्षलोकलोचनमनोभिरनुगम्यमानः पराध्यंजमायं परिकल्पितानल्पमङ्गलाहपरिबर्हविराजितं निजभवनमासाद्य सद्यःसमुपसृतपद्ममुखप्रमुखंदउदयमिव कामुकजनमानसमिव करेण हस्तेन गृहत् दधत्, ईषद् मनाग् अवगलितं सस्तं कुचांशुकं स्तमवस्त्रं यस्य सन , अतएव रतिरणसंरम्भाय सुरतयुद्धोद्योगाय कुचकुम्भकुम्मिनः कुचकलशकरिणो मुखपट मुग्ववस्त्रं घटयदिव वितन्वदिव, विद्राषिता दूरीकृता विद्रुमस्य प्रशालस्य 'मूंगा' इति हिन्या प्रसिदस्य १० छविः कान्तियेन तेन दन्तच्छदरागेण अधरलोहितिम्ना हृदयान्तर्गतश्चासौ रामप्राग्मारश्च तं हृदयस्थित. प्रीतिसमूह प्रदर्शयदिच, धवलितः शुक्लीकृतः पुरोमायो यस्य तत्, सौभाग्यमेव चन्द्रस्तस्य चन्द्रिकोदयमित्र ज्योत्स्नोदयमिव, मन्दहसितं मन्दहास्यम् अमन्दादराद् भूयिष्ठादराद् आचाराय प्रचलितपतये लाजानां भर्जितधान्यपुष्पा निकरः समूहस्तं विकिदिव प्रकीर्ण कुदेिव, समारोपित: सप्रस्यीकृतचारुतरचूलताचापो पेन तन, लक्ष्यभेदे शरस्यभेदे दक्षाः समर्था ये तीक्ष्णकटाक्षा एव शरा बाणास्तेषां १५ मोले मोचने चतुरं विदग्धम् । ८५. तदपीति--तदपि अनङ्ग पलं दर्शनमेव प्रसादस्तेन दटिपसादेन परितोषयन् संतुष्टं कुर्वन् उल्लोको हर्षो येषां त उल्लोकहर्षास्ते च ते लोकाश्च तेषां लोचनमनोभिर्नयनचेतोमिः अनुगम्यमानः, पराप्यं श्रेष्ठं जन्म यस्य सः, भयं जीपंधरः परिकलित रचितैरनल्पमङ्गलाहपरिवहभूयिष्ठमङ्गलयोग्योपकरणधिराजितं शोभितं निजभवन स्वसदनमासान प्राप्य समः शौच समुपसूसैः समीपागतैः पचमुखप्रमुखैः २० पल्लष रख छोड़ा था जिससे वे ऐसी जान पड़ती थीं मानो बढ़ते हुए रागसे आगत कामीजनोंके हृदयको अपने हाथसे पकड़ ही रही हों । उनके स्तनका वस्त्र कुछ-कुछ नीचेकी ओर खिसक गया था उससे ऐसी जान पड़ती थी मानो रतिरूपी युद्धको प्रारम्भ करने के लिए स्तनकलश रूप हाथीके मुखके वस्त्रको दूर ही कर रही थीं। मूंगाको कान्तिको तिरस्कृत करनेवाल ओठोंकी लालीसे वे ऐसी जान पड़ती थीं मानो हृदयके भीतर स्थित रागकी , वल्लभताको ही दिखला रही हों। अग्रभागको सफेद करनेवाले एवं सौभाग्यरूपी चन्द्रमाकी चाँदनीके उदयके समान दिखनेवाले मन्द हास्यको वे प्रकट कर रही थी उनसे ऐसी जान पड़ती थीं मानो स्वागत के लिए लाईका समूह ही बिखेर रही हों। उन्होंने अत्यन्त सुन्दर प्रकुटिलतारूपी धनुषको चढ़ा रखा था और वे लत्यके भेदनेमें चतुर तीक्ष्ण कटाक्षरूपी बाणोंके छोड़नेमें चतुर थीं। ३० ६८५. जो उन स्त्रियों के समूह को भी दर्शनके प्रसादसे सन्तुष्ट कर रहे थे तथा अत्यधिक हर्षसे युक्त मनुष्यों के नेत्र और मनसे जो अनुगम्यमान थे ऐसे श्रेष्ठ जन्मके धारक जीवन्धर कुमार, रचे हुए अनेक मंगलमय उपकरणोंसे सुशोभित अपने घर पहुँचकर पर्वतसे सिंहके बच्चे के समान रथसे नीचे उतरे। शीघ्र ही सम्मुख आये हुए पद्ममुख आदि मित्रोंने उन्हें १.क० ख० ग. अमन्दरागात् । २. क. 'प्रमुख पदं नास्ति ।
SR No.090172
Book TitleGadyachintamani
Original Sutra AuthorVadibhsinhsuri
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1968
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size20 MB
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