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________________ - स्वयंवरवृत्तान्तः] - दशमो लम्मा.. सच सायकप्रष्ठो निसृष्टार्थ इव साधितसमोहितः सहसा न्यबतिष्ट । $२४६. ततः कृतपुङ्खमेनं पुरुषपुंगवं समोक्ष्य समीक्ष्यकारी स विदेहाधिपतिदेहेन सम सिद्धक्षेत्रकृताध्यास इव प्रसोदभ्रफुल्लवदनाम्भोजः समालोक्य भूभुजां मुखानि मुखविकासविवृतान्तर्गतनुष्टिप्रकर्षः काष्ठाङ्गारपर्यायानिर्वाणदर्वी करस्य शिरसि दम्भोलिमिव पातयन्नतिगम्भीरया गिरा 'जोधरोऽयं सत्यं धरसम्राजस्तनयः' इति तदुदन्तमिदंतया विववे । तदुपश्रुत्य श्रवणबुलुकपेयं ५ पीयूषायमाणं व वनं सर्वेऽपि सर्व महायतयः सर्वथा क्षात्रमेवेदमौचित्यम् । न परत्र पदं लभेत परस्य हि कृत्यमिदं प्रत्यालोढपाटवं प्रेक्षणसौक्ष्म्यं लक्ष्यभेदमात्रपर्याप्तशररहःसंपादनचातुर्य चेति प्रागेत्र याणमोला येन तथा भूनः सन् बारहदयं शत्रुमनः क्षोभयन् चपलयन् आशु शीघ्नं केनचिद् आशुगेन बाणेन शरय लक्ष्यं विव्याध विद्धवान् । स च सायकाष्ठो बाणश्रेष्ठी निस्वार्थ हव राजदून इव 'उमयोर्भावमुझीय स्वयं वदति चीत्तरम् । सुश्लिष्टं कुरुते कार्य निसृार्थस्तु स स्मृतः ॥ इति निसृष्टार्थलक्षणम् । साधितं १० समाहितं स्वेटं येन तधाभूतः सन् सहसा झगिति व्यवतिष्ट प्रत्याववृते ।। ६२५६. तत इति-जनस्तदनन्तरं कृतपुतं कृतकृत्यम् एनं पुरुषपुङ्गवं नरश्रेष्ठ जीवंधरं समीक्ष्य दृष्ट्वा समीक्ष्यकारी विचार्य करीतीत्येवंशीतः स विदेहाधिपतिगोविन्दभूपाको देहेन समं शरीरेण सार्ध सिद्धक्षेने मोक्ष कृता विहितोऽध्यासी निचासो येन तथाभूत इव प्रसीदन् प्रसन्नी मवन् प्रफुल्लं प्रविकसितं बदनाम्मोज मुखारविन्दं यस्य तथाभूतः सन् भूभुजां राज्ञां मुखानि वदनानि समालोक्य दृष्ट्वा १५ मुख विकासेन वदनप्रसादेन विवृतः प्रकारितोऽन्तर्गततुष्टिप्रकर्षा हृदयस्थत सन्तोषाधिक्यं यस्य तथाभूतः काष्टाङ्गारपर्याय श्वासावनिर्वाणींकरो जीक्तिभुजङ्गमश्चेति तस्य शिरसि दम्भोलि वज्रमित्र पातयन् अतिगम्भीरया प्रगल्भया गिरा प्राण्या 'अयनेष जीबंधरः सत्यं धरसम्राजो रामपुरीधरावलल मस्य तनयः पुत्रः' इति तदुदन तद्वत्तान्तम् इदंत मानेन प्रकार विय अटयामास । प्रवणचुलुकपेयं कर्णचुलुकेन पातुं योग्यं पीयूषायमाणं सुधासंनिभम् तद् वचनम् उपश्रुत्य सर्वेऽपि निखिला अपि सर्वसहापतयः २० पृथिवीपालाः 'सर्वथा सर्वप्रकारेण इदमौचित्यं क्षात्रमंव अत्रसम्बन्ध्यव । हि यतः परस्य श्रेष्ठस्य इदं कृत्य परवान्यस्मिन् जने पदं स्थानं न लभेत । इदं किम् ? तदेवाह-प्रयाली रगासनविशेपे पाटवं चातुर्य, कार्योको करते हुए शत्रु के हृदयको क्षुभित करने लगे। इसी समय उन्होंने किसी बाणसे शीन ही लक्ष्यको बंध दिया। और जिस प्रकार कायको सिद्ध करनेवाला निःसृष्टार्थ उत्तम दूत इच्छित कार्य को सिद्ध कर सहसा लौट आता है उसी प्रकार उनका यह वाण भी इच्छित २५ कार्यको सिद्ध कर सहसा लौट आया। ६२४६. तदनन्तर मनुष्यों में श्रेष्ठ जीवन्धरकुमारको अपने कार्य में सफल देख विवार कर कार्य करनेवाले गोविन्द महाराज शरीरसहित सिद्ध क्षेत्र में निवास करते हुएके समान प्रसन्न हो उठे । जिनका मुखकमल ग्चिल रहा था ऐसे गोविन्द महाराज ने राजाओं के मुखोंकी ओर देख अपने मुखके विकाससे अन्तःकरणके सन्तोषको प्रकताको प्रकट करते ३० हुए, अत्यन्त गम्भीर वाणोसे 'यह जीवन्धर महाराज सत्यन्धरका पुत्र है' इस प्रकार उनका वृत्तान्त प्रकट कर दिया। उस समय उनके यथार्थ वृत्तान्तको प्रकट करते हुए गोविन्द महाराज ऐसे जान पड़ते थे मानो काष्ठोगाररूपो सजीव सर्पके शिरपर वन ही गिरा रहे हों। कानरूपी चुल्लू के द्वारा पान करनेके योग्य अमृत तुल्य उक्त वचनको सुन सब राजा लोग 'सर्वथा यह योग्यता क्षत्रियके ही हो सकती है। दुमरेका कार्य दूसरेमें स्थानको ३५ प्राप्त नहीं हो सकता। यह आलीट आसनकी चतुराई, यह दृष्टिको सूक्ष्मता और यह लक्ष्य के भेदने मात्र के लिए पर्याप्त वाणमें वेग उत्पन्न करने की दक्षता दूसरेका कार्य नहीं हो सकती --- ...
SR No.090172
Book TitleGadyachintamani
Original Sutra AuthorVadibhsinhsuri
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1968
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size20 MB
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