SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 484
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५. पारिभाषिक शब्दकोष धर्मादिनिरय २८२।४१४ मेरुपर्वत से एक हजार योजन नीचेसे लेकर अधोलोक शुरू होता है उसकी ऊँचाई सात राजु है । उसमें हैं जिनके रूढिगत नाम १ घर्मा, २ वंशा, ३ मेघा, ऊपरकी छह राजु प्रमाण ऊँचाई में सात पृथिवियाँ ४ अंजना, ५ अरिष्टा, ६ मघवा और, ७ माघवी है। इन्ही सार्थक नाम १ रत्नप्रभा २ शर्कराप्रभा, ३ बालुकाप्रभा, ४ पच प्रभा, ५ धूमप्रभा, ६ तमः प्रभा औरं७ महातमः प्रभा है। ये हो सात नरक कहलाते हैं विशिष्ट अध्ययन के लिए राजवातिकका (तृतीयाध्यायप्रारम्भिक भाग ) देखें । २८७|४२६ अष्ट प्रातिहार्य तीर्थंकरके समवसरणमें निम्नांकित आठ प्रातिहार्य होते हैं १ अशोक १हाल, ६ वय ४ भामण्डल, ५ दिव्यध्वनि, पुष्पवृष्टि, ७ चौंसठचमर, ८ दुन्दुभिवाद्य अष्टमूल गुण २८३१४२२ श्रावकके आठ मूलगुण -- अवश्य करने योग्य कार्य ये हैं - १ मचत्याग, २ मांसत्याग, ३ मधुत्याग ४ अहिंसाणुव्रत, ५ सत्याणुत्रत, ६ अ बौर्याणुव्रत, ७ ब्रह्मचर्याणुव्रत ८ परिग्रहपरिमाणाणुव्रत । ये समन्तभद्र के मत से हैं । गद्यचिन्तामणिकारने भी इसी मतका उल्लेख किया हैं। जिनसेनाचार्यने मद्यत्यागको मांसत्यागमें गर्भित कर उसके स्थानपर द्यूतत्यागको रखा है। सोमदेवने मद्यत्याग, मांसत्याग, मधुत्याग और बड़, पीपर, कमर, कमर तथा अंजीर इन पांच उदुम्बर फलोंके त्यागको आठ मूलगुण कहा है। पीछे चलकर आशाबरजीने किसी अन्य आचार्यक मतसे निम्नांकित आठ मूलगुण परिगणित किये हैं-१ मद्यत्याग, २ मांसत्याग, ३ मधुत्याग, ४ निशाभोजन त्याग, ५ पंजोदुम्बरफलीत्याग, ६ जीवदया, ७ जलगालन और ८ देव दर्शन कर्माष्टक ६७।११९ आत्मा रागादि विभाव भावोंका निमित्त पाकर कार्मण वर्गणारूप पुद्गल द्रव्य स्वयं कर्मरूप परिणत हो जाता है उसके मूलभेद बाय हैं १ ज्ञानावरण, २ दर्शनावरण, ३ वेदनीय, ४ मोहनीय ५ आयु, ६ नाम, ७ गोत्र और अन्तराय । इनके उत्तर भेद १४८ होते हैं । विशेष परिज्ञानके लिए तत्त्वार्थसूत्रका अष्टमाध्याय देखें । गणधर पीठिका श्लोक १४ तीर्थकर के समवसरण धर्मसभा में जो चार ज्ञानके धारक पदवीधर मुख्यमुनि हैं वे गणधर कहलाते हैं भगवान् महावीर स्वामोके समवसरण में थे जिनमें इन्द्रभूति ( गौतम ) ११ गणधर प्रमुख थे । पीठिका १२ चतुराश्रम १ ब्रह्मचर्याश्रम, २ गृहस्थाश्रम, ३ वानप्रस्थाश्रम और ४ संन्यासाश्रम ये चार आश्रम हैं। इनके कर्तव्य तथा विधि-विधान के विशिष्ट अध्ययन के लिए महापुराण द्वितीय भाग देखें। चतुर्गति २८२।४१४ १ नरक, २ तियंत, ३ मनुष्य और ४ देव ये चार गतियाँ हैं । संसारी जीवको दशाविशेषको गति कहते हैं । नियम २६४।४३२ किसी वस्तुका कालको अवधि लेकर त्याग करना नियम कहलाता है । मूलमन्त्र 'णमो अरिहंताणं णमो सिद्धाणं णमो आइरोयाणं । १२५/१९६ णमो उवज्झायाणं णमो लोए सबसाहूणं ।' है तथा सब विघ्न नष्ट करनेवाला है । जैनधर्म में इस मन्त्रका बड़ा प्रभाव है। यह मन्त्रराज यस २९४/४३२ किसी वस्तुका जीवन पर्यन्तके लिए त्याग करना यम कहलाता है । व्यसन बुरे कार्योंमें मानवको आसक्तिको व्यसन कहते हैं । २८३४२१ ये सात है- १ शिकार, २ परस्त्रीसेवन, ३ चोरी, ४ मदिरापान, ५ द्यूत, ६ मांसभक्षण और ७ वेदयासेवन ।
SR No.090172
Book TitleGadyachintamani
Original Sutra AuthorVadibhsinhsuri
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1968
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy