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________________ गयचिन्तामणिः [६३-६४ आर्यनन्दिगुरुणा लक्ष्यभेददक्षतायै मृगयेति, संकटपतितकार्यविचारपाटवाय द्यूतक्रीडेति' प्रतीकस्थर्याय पिशिताशनमिति मनःप्रसादाय मधुपानमिति, रतिनैपुण्याय पण्ययुवतिपरिष्वङ्ग इत्यभिनवरतिरसास्थानिरस्तये परस्त्रीपरिग्रह इति शौर्यस्फूर्तये चौर्यमिति केलिरसाय तरलवृत्तिरिति, महासत्त्वतेति माननीयावधोरणं, महानुभावतेति वन्द्यानभिवन्दन महातेजस्वितंति तेजस्वातरस्क रणमित्युपदिश्य स्व५ वश्याकल्पयन्ति । ६४. वित्तमदाचान्तविवेक: स जन्तुरपि तथोपदिशन्तमधिकपापिनमपथदर्शिनमपथ्यशंसिनमकृत्यकारिणमुक्तानुवादिनमुत्कोचोपजी विनं परपीडामुदितमानसं पराभ्युदयखिन्नहृदयं पेशुन्यवात धूर्तधुराशिक्षणविचक्षणं विटलोकमेव विदग्धमतिस्निग्धं च विभाव्य स्वगात्रं स्वकलत्रं मिनयन्तः, चरलक्ष्यस्य भेदे या दक्षता तस्यै चलशरग्यभेदकुशलतायै मृगयेति आखेटमिति, संकटे पतितं यरकार्य तस्य विचारे यत् पारवं तस्मै संकटापसकार्यविमर्शचातुर्याय धूतकोडेति दुरोदरकलिरिति, प्रतीकस्थैर्याय शरीरदाढाय पिशिताशनं मांसभोजनमित्ति, मनःप्रसादाय चेतःप्रसन्नतायै मधुपानं मदिरासेवनमिति, रती नैपुण्यं तस्मै सुरतचातुर्याय पण्ययुवतिपरिष्वको रूपाजीवाश्लेष इति, अमिनवरतिरसे नूतनसुरतरसे याऽऽस्था तस्या निरस्तये दूरीकरणाय परस्त्रीपरिग्रह इतरस्त्रीस्वीकार इति, शोयस्फूर्तये पराक्रम विस्फारस्वाय चौर्यमिति, केलिरसाय क्रीडारसाय तरलवृत्तिः श्वञ्चलवृत्तिरिति, महासावता महापराक्रमतेति १५ हेतोः मानवायावधारणमादरणीयजनतिरस्करणम् , महानुभावसा-महाशयतेति हेतोः बन्यानभिनन्दनं वन्दनीयजनानमनम्, महातेजस्वितेति महीजस्वितेति हेतोः तेजस्वितिरस्करणं महौजस्विजनानादर इत्युपदिश्य स्ववश्यास्वाधीनान् कल्पयन्ति ।। ६६४. वित्तमदाचान्तेति-वित्तमदेन धनगणाचान्तो नष्टो विवेको योग्यायोग्यविचारो यस्य तथाभूत: स जन्तुरपि राजपुत्रोऽपि अनादरवप्रदर्शनाय जन्तुरिति सामान्यपदेनाभिधानम् । तथा पूर्वोक्त___ २० प्रकारेणोपदिशन्तम् , अधिकपापिनं पापातिशययुक्तम्, अपथदर्शिनं कुमार्गदर्शयितारम्, अपथ्यमहितं शंसतीत्येवंशीलं तम्, अकृत्यं कोतीत्येवंशीलम्-अकार्यकारिणम् , उक्तमितरजनामिहितं योग्यमयोग्य वानुवदतीत्येवंशीलस्तम्, उस्कोचेन लञ्चयोपजीवतीत्येवंशीलस्तम, परपीडया अन्यजनकप्टेन मुदितं प्रसन्न मानसं यस्य तम्, पराभ्युदयेन अन्यजनैश्वर्यण खिचं हृदयं यस्य तम् , पैशुन्यवात खलरचवातम् , धूर्तधुराशिक्षणे धून भारशिक्षायां विचक्षणो निपुणस्तम्, एवंभूतं विटलोकमेव पोद्गजनमेव विदग्धं चतुरम् २५ लक्ष्यको भेदन करनेकी सामर्थ्य प्राप्त करने के लिए शिकार खेला जाता है, संकट में पड़े कार्य के विचार करनेकी चतुरता प्राप्त करने के लिए जुआ खेला जाता है, शरीरकी दृढ़ताके लिए मांस खाया जाता है, चित्तको प्रसन्न रखने के लिए मदिरा पान किया जाता है, गति-सम्बन्धी चतुराई प्राप्त करने के लिए वेश्याओंके साथ समागम किया जाता है, नूतन-अभुक्त स्त्रीके साथ रति रस में आदर भाव दूर करनेके लिए परस्त्रीको स्वीकृत किया जाता है, शूरवीरता ३० को बढ़ाने के लिए चोरी की जाती हैं, क्रोड़ा-सम्बन्धी रसकी प्राप्तिके लिए चंचलता धारण करना ठीक है, पूज्य पुरुषोंका तिरस्कार करना महासत्त्वता है, वन्दनीय मनुष्योंको वन्दना नहीं करना महानुभाव ता है और तेजस्वी मनुष्योंका तिरस्कार करना महातेजस्वीपना है, ऐसा उपदेश दे अपने अधीन कर लेते हैं। ६४. धनके मदने जिसके विवेकको चाट लिया है-नष्ट कर दिया है ऐसा प्राणी ३५ भी उस प्रकारका उपदेश देनेवाले अधिक पापी, कुमार्गदर्शी, अहितोपदेशी, कुकृत्यकारी, कहे हुएका समर्थन करनेवाले, लांचसे जीवित रहनेवाले, दूसरेकी पीड़ासे प्रसन्नचित्त, दुसरेका अभ्युदय देखकर खिन्नचित्त, चुगुलखोर और धूर्त मनुष्योंका भार सीखने में निपुण
SR No.090172
Book TitleGadyachintamani
Original Sutra AuthorVadibhsinhsuri
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1968
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size20 MB
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