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________________ 文 १५ रथचिन्तामणिः लोकाद्भुवमवलोकयितुमायातां सुरश्रियमिव सुरमञ्जरीम् ' मञ्जुभाषिणि, मा कृथाः प्रयाणे मतिम् । प्रमादस्खलितमस्य क्षम्यतां भुजिष्यस्य' इत्याभाष्य गाढमाश्लिष्य रमयन्नमरदुरासदसौख्यः पुनः प्रख्यात कुबेर साम्येन कुबेरदत्तश्रेष्ठिता श्रेष्ठतमे लग्ने स्ववित्तस्य स्वचित्तोन्नतेः स्वनाम्नो बरमहिमनश्चानुरूपमर्पितां पवनसखसाक्षिकं पर्यणेष्ट' । २५. ३३६ बलात् प्रसभम् आकर्षन्तीम् ईषद्विवर्तितं मुखं वक्त्रं यस्यास्ताम् अमर्त्यलोकात् स्वर्गाद् भुवं महीम् अलोकयितुम् आयात सुरश्रियमित्र सुरलक्ष्मीमित्र सुरमन्जरीम् 'मन मषिणि! हे मनोहरभाषिणि ! प्रयाणे मतिं मनीषां मा कृथाः । अस्य भुजिष्यस्य दासस्य प्रसादस्खलितमनवधानापराधः क्षम्यताम्' इति १० आभाष्य कथयित्वा ग्राहम् निविदम् भश्किप्य समाकिङ्गय रमयन् कीडयन् अमरदुरासदं देवदुर्लभं सौख्यं यस्य तथाभूतः सन् पुनरनन्तरं प्रख्यात प्रसिद्धं कुवेरसाभ्यं धनाधिपम्यं यस्य तेन कुबेरदत्तश्रेष्टिना तन्नामश्रेष्टिना श्रेष्टसमें प्रकृष्टतमे लग्नेऽवसरे स्ववित्तस्य स्वधनस्य स्त्रचित्तोन्नते निजस्वान्तौदार्यस्य स्वनाम्न आत्माभिधानस्य वरमहिम्नो जामातृमाहात्म्यस्य चानुरूपमनुकूलम् अर्पितां प्रदत्तां तां पवनसखः साक्षी यस्मिन्कर्मणि तद् यथा स्वात्तथा पर्योष्ट पाणौ जमाह । २२८. इति श्रीमद्वादी सिंह सूरिविरचिते गद्यचिन्तामणी सुरमन्जरीसम्मो नाम नवमो लस्मः । २२८. इति श्रीमद्वादी मसिंह सूरिविरचिते गद्य चिन्तामणौ सुरमञ्जरीलक्ष्मो नाम नवभो लम्मः ॥ अत्यन्त स्पष्ट रूप से देखनेकी इच्छा करनेवाले नेत्रयुगलको बहुत भारी लज्जाके कारण जबर्दस्ती खींच रही थी, जिसका मुख थोड़ा मुड़ा हुआ था, और जो पृथिवी लोकको देखने के लिए स्वर्ग से आयी हुई देवलक्ष्मी के समान जान पड़ती थी ऐसी सुरमंजरीसे कहा कि 'हे मधुरभाषिणि! जानेका विचार मत करो, इस दासका यह अपराध क्षमा किया जाय ?' इस २० प्रकार कह कर तथा गाढ़ आलिंगन कर उसे रमण कराते हुए देवदुर्लभ सुखको प्राप्त हुए । तदनन्तर जिसकी कुबेर के साथ समानता प्रसिद्ध थी ऐसे कुवेरदत्त सेठके द्वारा अत्यन्त श्रेष्ठ लग्न में अपने धन, अपने चित्तकी उन्नति, अपने नाम और उत्कृष्ट महिमा के अनुरूप अर्पित की हुई सुरमंजरीको अग्निकी साझीपूर्वक विवाहा । § २२८. ४. इस प्रकार श्रीमद्वादीमसिंह सूरिके द्वारा विरचित गद्यचिन्तामणिमै सुरमंजरीकम्भ ( सुरमंजरीकी प्राप्तिका वर्णन करनेवाला ) नौवाँ लम्भ पूर्ण हुआ । १. ऋ० ख०, ग० पर्यन |
SR No.090172
Book TitleGadyachintamani
Original Sutra AuthorVadibhsinhsuri
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1968
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size20 MB
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