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________________ ३१५ - वृत्तान्तः ] विमो लम्मः समाश्रितश्रीरामा अपि बुधायिणः, क्षमाभृतोऽप्यकठिनाः, दानोद्यता अप्यनिस्त्रिशाः, भृनन्दना अप्यबक्रचराः सन्तः सतां लक्षणमक्षूणमात्मसात्कुर्वन्ति । ६२३४. तावता तन्निशामनदुर्ललितस्वान्ता: बन्धनादिव बन्धुतायाः श्मशानादिव दिन रादनादायाशादिवोपदेशादाभिनारादिव कुलाचारादपमृत्योरिव पत्युः प्रहरणादिव कालहरणा- हिंसा दुद्दामादिव निजमानादुद्दाममुटेजमानाः, कल्याणात्मना गुणिना सुवृत्तेन पलायनवेगात्पादयोः ५ पतता 'परिपालनीया ननु निभृतगतिः' इति निवार्यमाणा इक मेखला कलापेन गुरुतरकुचकुम्भ देवता थेषां तथाभूताः, श्रीरामेव इति श्रीरामा समाश्रिता सविता श्रीरमा लक्ष्मीललना यस्तथ भूता अपि बुधाश्रयिणो विद्वज्जनाधयिणः, पक्षे थियोपलक्षितो रामः श्रीरामः समाश्रितः सेवितः श्रीरामो यस्तथाभूगा अपि नुधाश्रयणो विद्वज्जनायिणः, क्षमाभृतोऽपि पर्वता अपि अकठिना अकर्कशाः पक्षे शान्तियुक्ता अपि अकठिना मृदवः, दाने खण्डने उद्यता अपि अनिस्मिंशा अक्सः पक्षे त्यागतस्परा अपि अनिस्त्रिंशा १० अघातकाः। भूनन्दना अपि महीसुता अपि मङ्गल ग्रहा इति यावत् अवकचरा अकुटिलगतय इति विरोधपक्षे पृथिवीपुत्रा अपि सरलगामिनः सन्तः, सतां साधूनाम् अक्षणं पूर्ण लक्षणम् आत्मसात कुर्वन्ति आत्माधीनं विदधति । यत्र सत्पुरुषा वसन्तीति भावः । ६२३५. तावतेति–तावता तावमाटेन तस्य जीबंधाम्य मिशामनेन दर्शनेन दुर्ललितं गर्वविशिष्टं स्वान्तं चिर्त यासां तथाभूताः, बन्धूनां समूहो बन्धुता तस्या बन्धनादिय, सदनावनात् श्मशाना- १५ दिब, उपदेशात् आश्रयाशादिय बहेरिव, कुलाचारात् अमिचारादिव हिंसनादिव, परयुरपभृत्यारिवाकालमरणादिव, कालहरणाद्विलम्बनान् महरणादिव शस्त्रातादिव, निजमानात् स्वगर्वात् उद्दामादिन बन्धरहितादिव 'उद्दामो बन्धरहिते स्वतन्त्रे च प्रचेतसि' इति मंदिनी उदाममुष्कटं यथा स्यात्तथा उद्वेजन्त इत्युद्वेज माना बिभ्यतः, कल्याणात्मना सौवर्णेन पक्षे महात्मना, गुणिना सूत्रवता पक्षे गुणयुकेन सुवृत्तेन चतुलाकारेण पक्षे सदाचारेण पलायमस्य परिधावनस्य वेगो रयस्तस्मात् पादयोः चरणयोः पतता 'ननु २० निश्चयेन निभृतगतिनिश्चलगतिः परिपालनीया रक्षणीया' इतीत्थं मंखलाकलापेन रशनादाना निवार्यतारनेवाले थे)। शिवके भक्त होकर भी जैन थे-जिनके भक्त थे (पक्ष में कल्याणके सेवक होकर भी जैन थे )। श्रीराम के सेवक होकर भी वुधकी सेवा करनेवाले थे ( पक्षमें लक्ष्मीरूपी स्त्रीके सेवक होकर भी विद्वज्जनों की सेवा करनेवाले थे)। पर्वत होकर भी कठिन नहीं थे ( पक्ष में क्षमाके धारक होकर भी कोमल थे)। दान-खण्डन में उद्यत होकर भी निस्त्रिंश- २५ तलवारसे रहित थे ( पक्ष में दान देने में उद्यत होकर भी कर नहीं थे) और मंगलरूप होकर भी अवक्र चर---वक्रगति से रहित ( पक्षमें पृथिवीको हर्षदायक होकर भी सरल प्रवृत्तिसे सहित) होते हुए सज्जनोंके पूर्ण लक्षणको अपने अधीन करते थे । ६२३४. उतने में ही जीवन्धर कुमारके आगमनके सननेसे जिनके चित्त हातिरेकसे अस्त-व्यस्त हो रहे थे ऐसी स्त्रियाँ बड़े वेगसे आकर सब ओरसे नगरकी गलीको उस तरह ३० अलंकृत करने लगीं जिस तरह कि फूलोंसे सुशोभित लताएँ वनको भूमिको अलंकृत करती हैं। उस समय वे स्त्रियाँ बन्धुओंके समूहसे बन्धनके समान, घरसे श्मशानके समान, उपदेशसे अग्निके समान, कुलाचारसे हिंसामय प्रवृत्तिके समान, पनिसे अपमृत्युके समान, विलम्बसे शस्त्रक समान, और अपने मानसे जद्दण्डके समान अत्यन्त उद्विग्न हो रही थीं। उस समय दौड़नेके वेगसे उन स्त्रियोंकी मेखलाओंका समूह पाँवों में पड़ता हुआ ऐसा ३५ १. गविशिष्टचित्ताः, इति टि० । २. म० उद्विजमानाः ।
SR No.090172
Book TitleGadyachintamani
Original Sutra AuthorVadibhsinhsuri
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1968
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size20 MB
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