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________________ ३१६ गधचिन्तामणिः [ २३४ विदेहजनपदस्यनितम्बभारेण निवारितत्वरितगमनमनोरथोन्मेषाः, भुजलताविक्षेपवेगगलितानि 'विजृम्भितामर्षविषमेषुप्रेषितचक्रजालानीव वलयानि पार्श्वयोरुभयोः पथि विधुन्वानाः, प्रधावनरभसोत्थितमुक्तासरा आकृष्यमाणा इव मनसाग्नगामिना निबध्य कण्ठेषु मदनमौर्वी गुणदर विगलदलकबन्धविस स मानकुसुमापोडोत्सङ्गसङ्गिभि: क्वद्भिर्मदनप्रहितैरादेशदूतैरिव मधुकरराकुलोक्रियमाणास्तरसोप५ सृत्य सर्वतः पुरो वीथि पुरंध्रयः फुल्लभासिन्यो वल्लर्य इव वनस्थलोमलंचक्रुः । २३५, तासां च तन्निध्यानेन ध्यानप्रवेकेण तपोधनमनोवृत्तीनामिव निवतितान्यव्यापृ. तीनां मदिरामाद्यत्स्वान्तानामिवाचान्तलज्जानां मज्जन्तीनामिव रागसागरे मदिराक्षीणां कटाक्षमागा, इब, गुरुतरयोः कुचकुम्मयोः स्तनकलशयोनितम्बयोश्च कटिपश्चाद्भागयोश्च भारेण निवारितो निरुद्ध स्त्वरितगमनमनोरथस्य शीघ्र गरयभिलाषस्योन्मेषो यासां ताः, भुजलतयोर्खाहुवल्लयोर्विक्षेपवेगेन गलितानि १० बलयानि कटकानि 'कटको वलयोऽस्त्रियाम्' इत्यमरः, विजम्मितामर्षश्वासौ विषमेघुश्चेति विजम्भिसामाई विषयोहिंगतकोपकाते मिलानि बाबालादीय चक्रास्त्रनिकुरम्बानीव उभयोः पाश्चयोईयोस्तटयो: पधि विधुन्वानाः कम्पयन्तः प्रधावनस्य रभसेन पलायनस्य वेगेनोस्थितः समुस्क्षिप्तो मुकासरो मौक्तिकयष्टिर्यासां ता: भत एवाग्रगामिना मनसा कण्ठेषु ग्रीवासु नियध्य आकृप्यमाणा इव नीयमाना इव मदनस्य मारस्य मौव्या ज्याया इव गुणो येषां तैः दरं मनाग विगळन् शिथिलीभवन् योऽलकबन्धश्चूण१५ कुन्तलबन्धस्तस्माद् विनंसमानानां नीचलम्बमानानां कुलुमानां पुष्पाणां य भापीरः समूहस्तस्योरसंगसंगो मध्यसंगो विद्यते येषां तैः क्वद्भिः शन्दं कुर्वाणैः मदनप्रहितैः प्रधुम्नप्रेरितैः भादेशदूसैरिवाज्ञातैरिव मधुकरभ्रमरैः आकुली क्रियमाणा व्यग्रीक्रियमाणाः पुरन्ध्यो योषितः तरसा बेगेन सर्वतः समन्तात् उपमृत्य समीपमागत्य फुल्सैः पुप्पैमासन्त इत्येवंशीला: फुल्लमासिन्यो वल्लयों लता वनस्थळीमिव काननभूमिमिव पुरा नगरस्य वीथि रध्याम् भलंचकुः शोभयामासुः। २३५. तासां चेति-तस्य जीवकस्य निध्यानेन विलोकनेन ध्यानप्रवेकेण ध्यानश्रेष्ठेन तपोधनमनोवृत्तीनामिव मुनिमनोवृत्तीनामिव निवर्तित! दूरीकृता भन्यन्यातय इतर कार्यविक्षेपो यामिस्तासाम्, मदिरया कादम्वर्या माद्यत् मतोमवत् स्वान्तं चित्तं यासां तासामित्र, आचान्तलज्जानां स्यमनपाणाम् राग जान पड़ता था मानो 'गम्भीर चालकी रक्षा करना चाहिए' यह कहकर उन्हें रोक ही रहा था सो ठीक ही है क्योंकि जो कल्याणात्मा-कल्याणस्वरूप, गुणी-गुणवान् और सुवृत्त२५ सदाचारी होता है उसका वैसा स्वभाव ही होता है (पक्षमें स्वर्गमय, डोरासे युक्त और उत्तम गोलाकार होता है उसका वैसा स्वभाव ही होता है)। अत्यन्त स्थूल स्तन कलश और नितम्बोंके भारसे उन स्त्रियों का शीघ्र गमनसम्बन्धी मनोरथोंका प्रादुर्भाव रोक दिया गया था। वे स्त्रियाँ मागमें दोनों ओर भुज-लताओं के विक्षेप-सम्बन्धी वेगसे गिरी हुई जिन चूड़ियोंको छोड़तो जाती थीं वे तीत्र क्रोधके धारक कामदेवके द्वारा प्रेषित चक्रोंके समूह के समान जान पड़ती थीं। दौड़नेके वेगसे उनकी मोतियोंकी मालाएँ ऊपर की ओर उठ रही थीं। उनसे वे ऐसी जान पड़ती मानो आगे-आगे जानेवाला मन उन्हें गले में बाँधकर खीच ही रहा हो । जो कामदेवकी डोरीके समान गुणों के धारक थे, कुछ-कुछ ढीले हुए केशबन्धनसे गिरनेवाले फूल-समृहके मध्य में स्थित थे, शब्द कर रहे थे और कामदेवके द्वारा प्रेपित आज्ञाकारी दूतोंके समान जान पड़ते थे ऐसे भ्रमर उन स्त्रियोंको व्याकुल कर रहे थे। ६२३५. श्रेष्ठ ध्यानसे तपस्वियोंकी मनोवृत्तिके समान जीवन्धर स्वामीके अवलोकनसे जो अन्य कार्योंसे निवृत्त हो चुकी थीं, मदिरासे मत्त ह्रदयके धारकों के समान जिनकी लज्जा नष्ट १. क. 'वि' नास्ति । २. म. गामिणा । ३. म सन्धिभिः ।
SR No.090172
Book TitleGadyachintamani
Original Sutra AuthorVadibhsinhsuri
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1968
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size20 MB
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