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________________ गद्यचिन्तामणिः [ ३ राजपुरीमञ्जरीव भारदर्जभूरुहल्य, भगनासासहरीचिनिचयकवचिता कर्णचामरिकेव हेमाङ्गदमतङ्गजस्य, मरकतमणिकुट्टिममयूखपत्रला पद्मसरसीव कमलाकलहंसीविहारस्य, पातालवासिभिरप्यनालोकितमूलेन गगनचरैरप्यलक्षितशिखरेण पराजितपरनरपतिकरदीकृतकनकोपलपट लघटितेन विघटित कुलगिरितटाभिदिगन्तदन्तावलदशनकुलिशकोटिभिरण्यभेद्यसंस्थानेन स्तम्भित५ जगदुपरमसमयसमोरसंरम्भेण त्रिभुवनलक्ष्मीकनकपादकटककान्तितस्करेण प्राकारेण परिवृता कलशभवकवलितजलनिधिजनितानुशयेन कुशेशयभुवा सावधानमनवधिसलिलमापादितेनेव निपतिता नमुचिमथननगरीव नमुचिमथन इन्द्र स्तस्य नगरीव स्वर्गपुरीच, माधुर्थस्य कुलभूमिरिति माधुर्यकुल भूमिर्माधुर्यस्य सुनिश्चितस्थानमिति यावत् । अत एव भारतवर्षमेव भूरहस्तस्य मरतक्षेत्र वृक्षस्य फलमञ्जरीव फलश्रेणिरिय। भवनानां वलभ्य इति मवनवलभ्यो गृहगोपानस्यस्तासां १० मण्डनान्यलंकारभूना ये मुक्तासरा मौक्तिकमालास्तासां मरीचिनिचयेन किरणकलापन कवचिता व्याप्ता । अत एवं हेमाङ्गद एव मतङ्गजस्तस्य हमागदजनपदगजस्य कर्णचामरिकेच श्रवणयमीपटतचामरिकेव । मरकतमणिकुहिमस्थ हरितमणिग्यचितश्रियामोगस्य मयूखैः किरणः पाला पत्रयुक्ना, अत एत्र कालव लक्ष्मीरव कलहंसी मराली तस्या विहारस्य पसरसीव कमलसरसाव । प्राकारेण वलयन परिकृता परिवेष्टिता। अथ प्राकारस्य विशेषणान्याह-पाताले ति-पाताले वसन्तीत्येवं श.लास्तै. १५ रधोलोकनिवासिभिरपि । अनालोकित मूलं यस्य तेन अदृष्टनीबेण। गगने चरन्तीति गगनचरास्तैर्देवविद्या धरैरपि । अलक्षितमनलंकितं शिखरं यस्प तेन । पराजितपरनृपतिभिः पराभूतप्रत्यर्थिपर्थिवः करदीकृता राजस्त्ररूपण समर्पिता ये कनकोपलाः सुवर्णपाषाणातेषां पटलेन समूहन घटितो रचितस्तेन । विघटितानि खण्डितानि कुलगिरितटानि कुलाचलतीराणि यामिस्ताभिः । दिगन्तदन्तावलानां दिग्गजानां या दशन कुलिशकोटयो रदनपध्यग्रभागास्तैरपि । अमेय संस्थानं यस्य तेनाखण्डिताकारंण | स्तम्भितः प्रतिरुहो २० जगदुपरमसमयस्य जगत्प्रलयकालस्य समीरसंरम्भो वायुप्रकोपो येन तेन । त्रिभुत्रनलदम्यास्त्रिजगच्छिया यः कनकपादकटक: सौवर्णपादवलयस्तस्य कास्यास्सस्करचीरस्तेन परिखाचक्रेण खातबलयेन परिकता परिवृता। अथ परिखाचनस्य विशेषणान्याह-कलशेति-कलशमधेनागस्त्येन कवलित। अस्पो यो जलनिधिसीन जनितः समुत्पमोऽनुशयः पश्चातापो यस्य तेन । कुशेशयभुवा ब्रह्मणा सावधानं -. . - . . ऊपर उठी हाई पातालपरीके समान जान पडती थी अथवा निराधार होने के कारण आकाशसे २५ गिरी हुई इन्द्रकी नगरी - अमरावतीके समान मालूम होती थी। भारतवर्षरूपी कल्पवृक्षके फलको मञ्जरीके समान मधुरताकी कुलभूमि थी। महलोंकी छपरियों को सुशोभित करनेवाली मोनियोंकी मालाओंके समूहसे व्याप्त होने के कारण हेमाङ्गद देशरूपी हाथीके कानोंके समीप दुलनेवाली चमरीके समान जान पड़ती थी। वह लक्ष्मी रूपी कलहंसीके विहार करनेके लिए उपयुक्त उस कमलकलित सरोवरके समान जान पड़ती थी जो मरकत मणियोंसे ३० निर्मित फर्श की किरणोंसे कमल दलसे युक्त था। पातालवासी भी जिसका मूल नहीं देख सके थे और आकाशगामो विद्याधर भी जिसका शिखर नहीं देख सके थे, जो पराजित शत्रु. राजाओं के द्वारा करमें दिये हुए सुवर्णमय पाषाणके समूहसे निर्मिन था, कुलाचलोंके तटोको तोड़नेवाले दिग्गजोंके दाँतरूपी वनकी कोटियोंसे भी जिसका आकार अभेद्य था, प्रलय कालकी वायुके प्रकोपको जिसने रोक दिया था, एवं जो त्रिभुवनको लक्ष्मीके सुवर्ण मय पाय३१ जेबकी कान्तिका चोर था ऐसे प्राकार-कोटसे बह राजधानी घिरी हुई थी । अगस्त्य ऋषिके ५ म० ख० ग० प्रतिपु प्रावृता
SR No.090172
Book TitleGadyachintamani
Original Sutra AuthorVadibhsinhsuri
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1968
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size20 MB
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