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________________ .. - गचिन्तामणिः ___ [५४ भाग्नन्दिगुरुणामनसा त्वया समाविष्टः पौरोगवाः पूर्वनिष्पन्न तद्भवनवासिनिखिल जनभोक्तव्यं विविधमन्धःसंभार समर्पयामासुः । स भिक्षुरक्षीणबुभुक्षुस्तदशेषमशनमम्भोधिपयःसंभारमिव कल्पान्तकालानल: कवलयन कदाचिदतार्सीत् । ५४. एवं पूर्वनिष्पनेस्तदात्वसंपादितैरपरिमितेश्च पायसदाधिकसापिष्काद्यमृत पिण्डेरपूर५ 'प्यपूर्णजठरमाशार्णवमिव वणिनमालोक्य चित्रीयाविष्टस्त्वमनासादिताहारो निवसन्भिक्षोधेिः परिक्षयकालतया वा कुमारकारुण्यवैभवेन वा तथाभवितव्यतया वा तस्य वस्तुनः स्वहस्तावलम्बित कलमकबलमत्यादराददिथाः । तदास्वादनमात्रेण तृष्णापयोधिरिख भगवत्या परमनिवृत्त्या क्षण आज्ञप्ताः पौरोगवाः पाचकाः पूर्व निष्पन्नं पूर्वनिष्पन्न प्राकसिद्धम् तद्भवनवासिमिनिखिलजनै क्तव्य मिति तथा विविध नानाप्रकारम् अन्ध सम्भार खायसमूहं समर्पयामासुः । अक्षीणा बुभुक्षा यस्य १० सोऽन्यूनभोजनामिकापः स भिक्षुः तत्समर्पितम्, अशेषं निखिलम् अशनं मोजनम् अम्मोधेः पयःसंभार इत्यम्भोधिषयःसंभारस्तमिव सागरसलिलसमूह कल्पान्तकालानल इब प्रायवेलापावक हर कवलन् प्रसन् न कदाचिज्जासुचि अताप्सीत् संतुष्टोऽभूत् । ६५४. एवमिति-एचमिस्थं पूर्वनिष्पन्नैः प्रापक्वैः तदात्वसंपादितस्तत्कालसाधितैश्च अपरिमितः भूयोभिः पयसा संस्कृतं पायसं, ना संस्कृतं दाधिक, सर्पिषा संस्कृत सापिकं पायसं च दाधिक घ १५ सापिकं चेति पायसदाधिकसार्पिकाणि तान्यादौ येषां तथाभूतानि यानि अमृत पिण्डैर्मधुरमोजनैः भमक्ष्य विशेषैरपि अपूर्णजठरमभृतोदरम् पाशार्णवमिव तृष्णातोयनिधिमिद वर्णिनं भिक्षुम् मालोक्य दृष्ट्रा चिनीयाविष्टो विस्मयोपंतः त्वम् अनासादितोडगृहीत आहारी येन तथाभतो निवसन् सन् भिक्षोस्तापसस्य म्याधेभस्मकरोगस्य परिक्षयकालतया विनाशलमयतया वा कुमारस्य भवतः कारुण्यमवेन दयाप्रमाण का तस्य वस्तुनः कार्यस्य तथा मवितन्यतया वा ताक्परिणतेरवश्यं भावितया वा स्वहस्तावसम्बितं स्वकीयपाणिसंधारितं कलमकपलं मक्तमासम् . अत्यादरात संमानातिशयात अदिवा: हत्तवान् । तदास्वादनेति-सस्य कलमकवलस्यास्वादनमेवेति तदास्वादनमात्रं तेन भगवत्या सातिशयप्रभावपूर्णया परमनिवृत्या दिगम्बर दीक्षया सृष्णापयोधिरिष तृष्णासागर इव तस्मिन्नेव क्षगे तत्काल ए वर्णिनस्तापस करनेवाले आपके द्वारा आज्ञाको प्राप्त हुए रसोइयोंने पहलेसे तैयार किये हुए एवं उस घरके सब लोगों के द्वारा खाने योग्य नाना प्रकारको भोजन सामग्री समर्पित कर दी। जिस प्रकार २५ कल्पान्त कालकी अग्नि समुद्र के समस्त जलको ग्रहण करती हुई भी कभी तृप्त नहीं होती है उसी प्रकार अक्षीण भूखको धारण करनेवाला वह साधु उस समस्त भोजनको खाता हुआ भी कभी तृप्त नहीं हुआ। ५४. इस प्रकार पहलके बने और तत्काल बनाये हुए अपरिमित दूध, दही तथा घीसे निर्मित अमृत के पिण्डके समान पुओंसे भी जिसका पेट नहीं भर सका था और जो ३० आशाके सागरके समान जान पड़ता था ऐसे उस ब्रह्मचारी-साधुको देखकर आप आश्चर्य में पड गये तथा स्वयं भोजन किये बिना ही बैठे रहे। उस समय साधकी बीमारीके क्षयका समय आ पहुँचा था, अथवा आपकी दयाका माहात्म्य था अथवा यह कार्य हो वैसा होनेवाला था इसलिए आपने अपने हाथमें स्थित धानके चावलोंका एक ग्रास बहुत ही आदरके साथ उसे दिया। उसे खाते ही साधुका पेट उसी क्षण उस प्रकार पूर्ण हो गया जिस प्रकार १. कैख० ग० अपित्र: । २. क० ख० ग. तत्स्वादनमात्रेण ।
SR No.090172
Book TitleGadyachintamani
Original Sutra AuthorVadibhsinhsuri
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1968
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size20 MB
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