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________________ १ १४८ गचिन्तामणिः [ ११ श्रीदत्तवैश्यस मथनेनेव घूर्णमाने भृशमर्णवार्णसि, प्रपञ्चतरीभवत्प्रभञ्जनभञ्जनजनितजलनिधिकल्लोलनूत शोणितकणपुञ्ज इव रञ्जितसनीडे पाटलचिद्रुमलतापटले प्लवमाने, चटुलाचलपाटनपाटवस्फु तपयोधिस्फीतास्थिसंघ इवासंख्यशङ्खनिवहे प्रेवति, विशृङ्खलतोयाशयशोकफूत्कार इव श्रूयमा भोकरलहरीप्रहाररवे, निघृणसमीरणपीडितनीरधिरोषकृपोटयोनाविव बाडवानले परिस्फुर्रा ५ स्फीतबलान्धगन्धवहप्रतिग्रहणप्रवण इव जवनजलनिधिजलवेणीप्रयाणे प्रेक्ष्यमाणे, प्रतिसरत्सलिर वेणीबलसमीपसंचारिणि चामरवितान इव बहलधवलफेनजाले प्रचलति, तुच्छेतरपयोराश्यावर्तग पयोदवृन्द इव पयःपूर्णे घूर्णमाने यानपात्रे, कर्णधारवदनग्लानिकण्ठोक्तपोतविनाशविनिश्चये यस्य तथाभूतो मन्दरो मेरुरेव मन्थो मन्थन दगडस्तेन मथनेनेय दिलोडनेनेव अर्णवार्णसि सागरसलि. भृशमत्यन्तं चूर्णमाने सति भ्रमति सति, प्रपनतरीभवन् दीर्घतरीभवन यः प्रभञ्जनः प्रचण्डपवनस्तेन भजन ब्रोटनं तेन जनितः समुत्पन्नो जलनिधिकल्लोलेपु तोयधितरङ्गेयु नूतनो नवीनी यः शोणिवकणपुजी रुधिः कणसमूहस्तद्वत् , रञ्जितसनीडे रक्तवर्णीकृतपाइर्वप्रदेशे पाटलमीपद्रक्तं यद् विदुमलतापटलं प्रवालवल्ली समूहस्तस्मिन् प्लबमाने तरति सति, चटुलानां वायुवशेन चलितानामचलानामन्तःस्थगिरीणां यत्पाटनपाटर विदारणसामध्यं तेन स्फुटितः प्रकटीकृतः पयोधेः सागरस्यास्थिसच इव कीकससमूह इव असंख्यशङ्क निवहे प्रचुरकम्बुकलापे प्रेङ्कति सति चलति सति, विश्लेन वृद्धिंगतो यस्तोयाशयस्य जलनिधेः शोकस्तस्त्र १५ फूरकार इव रोदनध्वनाविव भीकरो भयोत्पादको यो लहरीप्रहारस्तरङ्गाघातशब्दस्तस्मिन् श्रयमाणे निशम्यमाने, निर्धगसमीरणेन निर्दयपवनेन पीडितो यो नीरधिस्तस्य रोषकृपीटयोनाघिव क्रोधाग्नाविव बाडवानले बाढवाग्नी परिस्फुरति देदीप्यमाने सप्ति, स्फीतवलेन प्रचुरपराक्रमेणान्धो यो गन्धवहः पवनस्तस्य प्रतिग्रहणेऽवरुध्य परिग्रहणे प्रवण इव समर्थ इव जवनं वेगशालि यज्जलनिधिजलस्य सिन्धु. सलिलस्य वेणीप्रयाणं प्रवाहप्रसरणं तस्मिन् प्रेक्ष्यमाणे दृश्यमाने, प्रतिसरत् प्रतिगच्छद् यरसलिलवेणी२० बलं जलप्रवाहसैन्यं तस्य समीपे निकटे संचरतीत्येवंशीलस्तस्मिन् चामरवितान इव बालव्यजनसमूह इव बहलं विपुलं धवल सितं च यत्फेनजालं डिण्डीरसमूहस्तस्मिन् प्रचलति सति, तुच्छेतरो दीर्घतो यः पयोराश्यायतः समुद्रभ्रम एव गर्तस्तस्मिन् पयोदवृन्द इव मेघसमूह इव पयःपूणे जलभृते यानपात्रे जल अत्यधिक घूमने लगा और उससे ऐसा जान पड़ने लगा मानो अत्यधिक परिभ्रमणसे युक्त मन्दराचल रूप मथानीसे मथे जानेके कारण ही घूमने लगा था। समीपवर्ती प्रदेशको लाल १ लाल करनेवाला मूंगाकी श्वेतरक्त लताओंका समूह तैरने लगा और उससे ऐसा जान पड़ने लगा मानो उत्तरोत्तर अत्यन्त प्रचण्ड होनेवाली आँधोके द्वारा की हुई टूट-फूटसे उत्पन्न समुद्रकी तरंगोंके नये-नये खूनके कणोंका समूह ही तैरने लगा था। असंख्यात शंखोंका समूह चलने लगा और उससे ऐसा जान पड़ने लगा मानो चंचल पर्वतोंकी तोड़-फोड़ सम्बन्धी सामर्थ्यसे ट्ठी हुई समुद्रकी विस्तृत हड्डियोंका समूह ही चलने लगा था। भयंकर लहरोंके प्रहारसे १. उत्पन्न शब्द सुनाई देने लगा और उससे ऐसा जान पड़ने लगा मानो बढ़ते हुए शोकके कारण समुद्र फुक्के हो मार रहा हो-जोर-जोरसे रो रहा हो। निर्दय वायुके द्वारा पीडित समुद्रको क्रोधाग्निके समान सब ओर बडवानल चमकने लगी। समुद्र के जलके रंगशाली प्रवाह निकलनिकलकर बहते हुए दिखाई देने लगे और उससे ऐसा जान पड़ने लगा मानो वे प्रवाह अत्यधिक बलसे अन्धे पवनको पकड़ने के लिए समथे ही हों। बहते हुए जल-प्रवाह के समीप ३५ चलनेवाला अत्यधिक सफेद फेनका समूह इधर-उधर चल रहा था उससे ऐसा जान पड़ता था मानो चमरोंका समूह ही चल रहा हो। और विशाल समुद्रकी भँवररूप गर्त में मेघ १.क० जवनजलधिजल।
SR No.090172
Book TitleGadyachintamani
Original Sutra AuthorVadibhsinhsuri
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1968
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size20 MB
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