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________________ - स्वयंवरायोजनम् ] तृतीयो लम्मः खिन्नसंपन्नपन्नगपतिमौलयः समदमदावलकपोलतलगलदविरलमदजल जम्बालितभुवः, प्रभूतजवभरदुनिवारवनायुजवल्गनचटुलखुरशिखरसुदूरोत्थापितरेणुनिकरनिवारितवासरमणिमरोचयः काचमेचककरवालकरालमयूखपटलघटिताकालरजनोरीतयः शतमखशातशतकोटिशकलनशङ्कापलायमानसानुमत्सब्रह्मचारिशताङ्गशतशारितदीथयः स्फोतपरिकर्मपरिवर्धितकान्तयः , काशोपतिकाश्मोरक टिकालिङ्गकाम्भोजचोलकेरलमालवमगधपाण्ड्यपारसीकपुरोगाः पुरंदरसदृशभूतयो भूभुजः समेत्य ५ समन्तादासीननानाजनपद जनताजनितसंमर्द सर्वतोलम्बमानमुक्तासरसहमण्डितं स्वयंवरमणिमण्डापिकामध्यमध्यरक्षन् । १०४. तत्र च स्थानस्थाननिवेशितानि विडम्बितहाटगिरिकटकानि निकटघटितनक विशालसैन्यभारस्तेन विनमन्ती यावनिः पृथिव तस्या भरणे धारणे विनसंपन्ना आदी रिवनाः पश्चान्संपन्नाः पनगपतेः शेषस्य मौलनी मूर्धानो यैस्ते, समदति-समदा मदमहिता ये मदाबला गन्धग जास्तेषां १० कपोलतला गण्डस्थलप्रदेशाद् गलता पत्तता अविरलम दजलेन निरन्तरदानसलि हेन जम्बालिसा पकिलीकृता भूयस्ते, प्रसृतेति-अभूतेन प्रचुरेण जवभरण वेगसमूहन दुनिवारा निरोद्धमशझ्या ये बनायुजा (विशेषास्तेषां वलानेन संचारंण चटुलं यरखुरशिखा शफाग्रं तेन सुदूरमतिदूरमुत्थापितो यो रेणुनिकरो धूलिसमूहस्तन निवारिता दूरीकृता वासरमणिमरीचयो दिनकरदीधितयो यस्त, काति--काचवन्मेचकाः श्यामा ये करवालाः कृपाणास्तषी कराला मयक्करा ये मयूखाः किरणास्तेषां पटलेन समूहन घटितोप- १५ स्थापिता-अकालरजनीरीतिरकाण्डनिशारीतियेस्ते, शसमखेति-शतमखस्य पुरन्दरस्य शाततीक्ष्णो यः शतकोटिवज्र तेन शकलनं खण्डनं तस्य शङ्कया भयंन पलायमाना ये सानुमन्तो गिरयस्तेषां सब्रह्मचारिणो ये शताला स्थास्तेषां शतेन मारिताः न्यासा वीधित्रत्म यस्ते, स्पीतेति-स्फीतमत्यधिक यत्परिकमअङ्गसंस्कारस्तेन परिवर्द्धिता वृद्धिंगता कायकान्तियेषां त 'परिकर्माङ्गसंस्कारः' इत्यमरः, काशीति-काशीपन्यादयः पुरोगा अग्रेसरा येषां ते, पुरन्दरेति-पुरन्दरसहशी शकसमाना भूतिरैश्वर्य येषां ते । २० 10. तत्र चेति-तच स्वयंवरमणिमण्डपिकायाम, स्थाने स्थाने निवेशितानि तसस्थानस्थापितानि, विडम्बितोऽनुकृतो हाटकगिरेः स्वर्णशैलस्य कटकः शिखरं यस्तानि, निकटवरितानि पार्श्व को अम्हादित कर दिया था । एक साथ चलती हुई बहुत भारी सेनाके भारसे झुकी पृथिवीके धारण करनेसे शेषनागके मस्तकको खेद-खिन्न कर दिया था। मदमाते हाथियोंके गण्डस्थलसे लगातार झरते हुए मदजलसे पृथिवीको पंकयुक्त कर दिया था। अत्यधिक वेगके २५ भारसे दुर्निवार घोड़ोंकी दौड़में उनके चंचल खुरोंके अग्रभागसे बहुत ऊँची उठी धूलिके ममूहसे सूर्य की किरणोंको रोक दिया था। काँचके समान श्याम नलवारोंकी भयंकर किरणावलीसे असमयमें रात्रिकी स्थिति प्रकट कर दी थी । इन्द्र के तीक्ष्य वनसे खण्ड-खण्ड होनी शंकासे भागते हुए पर्वतोंके समान सैकड़ों रथोंसे गलियाँ व्याप्त कर दी थीं। अत्यधिक साजसजावटसे उनकी कान्ति बढ़ रही थी। काशीपति, कश्मीर, कर्णाट, कलिंग, कम्भोज, ३० चोल, केरल, मालव, मगध, पापद्य और पारस देशके राजे उनमें प्रधान थे। तथा इन्द्र के समान सबकी विभूति थी। १०४. उस मण्डपमें स्थान-स्थानपर रखे हुए उन उत्तम सिंहासनॉपर वे राजा लोग बंटे हुए थे जो स्वर्णगिरि-सुमेरु पर्वतकी मेखलाकी हँसी उड़ा रहे थे। पास-पास में लगे हुए ... १. का. रजनीततयः । २. शारितवीधयः-व्याप्तबीययः इति टि। २२
SR No.090172
Book TitleGadyachintamani
Original Sutra AuthorVadibhsinhsuri
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1968
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size20 MB
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