SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 302
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गग्रचिन्तामणिः [ १७४ क्षेमपुर्या - वैदग्ध्यलास्यविद्याललितभ्रलतं दन्तकान्तिचन्द्रिकारितविद्रमपाटलरदनच्छदमुन्मष्टचामोकरमुकुरतुलितकपोलमजुतुङ्गकोमलदोर्धनासिकं विगाढलक्ष्मोभुजलतावेष्टनमार्गानुकारिकण्ठरेखमंससंसक्तकर्णपाशं शौर्यशिबिरोत्तम्भितस्तम्भसब्रह्मचारिमनोहरांसबाहुलतं कमलाकर्णावतंसकङ्केलिकिस लयसुकुमाररुचिरकरशाख व्यक्त श्रीलक्ष्मविकटवक्षःकबाटममृतसरिदावर्तसनाभिनाभिमण्डलं नख दिन५ मणिनिष्यन्दिकिरणविकासिचरणतामरसद्वन्द्वं कन्दमिवानन्दस्य प्ररोहमिवोत्सवस्य पल्लवमिवोल्लासस्य कुसूममिव मङ्गलस्य फलमिव मनोरथस्य न्यञ्चत्काञ्चननगालोकमति लोकं वपुरमुष्य तावदामुष्यायणत्वमेव न केवलं केवलादयस्थानतामध्यनक्षरमाचष्टे' इति । तत्, वैदग्ध्येति–वैदग्ध्यस्य चातुर्यस्य या लास्थविद्या नृत्यविद्या सया कलिने मनोहरे भूलते भ्रफुटिवस्कयौं यस्मिस्तत्, दन्तेति-दन्तकान्तिरेव दशनदोप्ति रेव चन्द्रिका को मुदी तया बिच्छुरितो व्याप्तो विद्रुमपाटल: १० प्रवालश्वेतरक्तवर्णो रदनच्छद ओष्ठो यस्मिस्तत्, उन्मृष्टेति--उस्मृष्टौ स्वच्छीकृतौ यो चामीकरमुकुरी सुवर्णदर्पणौ ताभ्यां तुलितो कपोको यस्मिन् तत्, ऋग्विति-ऋत्री सरला, तुङ्गा सूमता, कोमला मृदुला, दीर्वायता च नासिका घ्राणं यस्मिन् तत् , निमो-निशा निविदा मीभजत तामाः श्रीबाहुबली वेष्टनं समालिङ्गनं तस्य मार्गस्थानुसारिण्यः सदृश्यः कण्ठरेखा प्रोबारेखा यस्मिन् तत्, अंसेति-~-ससंसक्ती स्कन्धालग्नौ कर्णपाशी यस्मिन् तन्, शौति-शौर्य शिबिरस्य पराक्रमस्कन्धावारस्योतम्भिता उत्थापिता ये १५ स्तम्मास्तेषां सरह्मवारियौ सदृश्यो मनोहरांसे सुन्दरसकन्धे बाहुलते यस्मिन् वत्, कमलेति--कमलाया लक्ष्म्याः कविसं सौ कर्णाभरणभूतौ यो कङ्केलिकिसलयावशोकरल्ल बौ तदरसुकुमारा मृदुला रुचिराश्च मनोहराश्च करशाखा हस्ताङ्गलयो यस्मिन् तत् । व्यति-व्ययं प्रकरितं श्रिया लक्ष्भ्या चिह्न यस्मिन् तथाभूतो विकटो विशालो वक्षःस्वाटो यस्मिन् तत्, अमृतेति-अमृतसरितः सुधास्त्र वस्या आवतों भ्रमस्तस्य सनाभि सदृशं नाभिमण्डलं तुन्दीयो यस्मिन् तत्, नखेति--तला एक दिनमणः सूर्यास्तेभ्यो निप्यन्दिनो ये किरणा २० मयूखास्तैर्विकासि प्रोत्फुल्लं चरणतामर पद्धन्द्धं पादामघुगलं यस्मिन् तत्, आनन्दस्य प्रमोदस्य कन्दलमित्र, उत्सवस्योद्धवस्य प्ररोहमिवार मित्र, उल्लासस्य पल मिर किसलयमित्र, मङ्गलम्य कुसुममित्र, मनोरथस्य फलमित्र न्यश्च नामपन् काम्वननगस्य स्वर्णादेरालोको येन तत्, लोकमतिक्रान्तमतिलोकं लोकश्रेष्ठम् । रहा है, जिसको भ्रकुटीरूपी लता चातुर्य की नृत्यविद्यासे सुन्दर है, जिसके मूंगाके समान २५ श्वेत रक्त ओष्ठ दाँतोंकी कान्तिरूपी चाँदनीसे व्याप्त हैं, जिसके कपोल साफ किये हुए स्वर्ण निर्मित दर्पणके समान हैं, जो सीधी, ऊँची, कोमल एवं लम्बी नाकसे सहित है, जिसके कण्ठकी रेखाएँ आलिंगनको प्राप्त लक्ष्मीके भुजलताके लिपटने के मार्गका अनुकरण कर रही हैं, जिसके कर्णपाश कन्धोंसे सटे हुए हैं, जिसकी मनोहर कन्धोंसे युक्त भुजलताएँ पराक्रम का शिविर लगाने के लिए खड़े किये हुए खम्भों के समान हैं, जिसकी सुन्दर अँगुलियाँ ३० लक्ष्मीके कर्गाभरणस्वरूप अशोकके पल्लवोंके समान सुकुमार हैं, जिसका विशाल वक्षः स्थलरूपी किवाड़ प्रकट हुए लक्ष्मीके चिह्नके सहित है, जिसका नाभिमण्डल अमृतकी नदीके भँवरके समान जान पड़ता है, जिसके चरणरूपी कमलोंका युगल नखरूपी सूर्य से निकलनेवाली किरणोंसे विकसित है, जो मानो आतन्दका कन्द है, उत्सवका अंकुर है, उल्लासका पल्लव है, मंगलका फूल है, मनोरथका फल है, जिसने सुमेरुके प्रकाशको तिरस्कृत३५ कर दिया है, तथा जो लोकको अतिक्रान्त करनेवाला है ऐसा इनका शरीर न केवल इस लोकसम्बन्धी गौरवको प्रकट कर रहा है किन्तु केवलज्ञानरूपी सूर्यके उदयको स्थानताको भी चुपचाप कह रहा है।
SR No.090172
Book TitleGadyachintamani
Original Sutra AuthorVadibhsinhsuri
AuthorPannalal Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1968
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy