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प्रस्तावना
यद्ध-आवश्यकता पड़नेपर युद्ध होता था और अधिकतर धनुष-बाणसे शस्त्रका काम लिया जाता था। खास अवस्थामें तलवारका भी उपयोग होता था। युद्धमें रथ, घोड़े और हाथियोंकी सवारीका उल्लेख मिलता है। अन्य समय शिविका-पालकीका भी उपयोग होता था। इसका उपयोग बधिकांश स्त्रिया करती थीं।
शैक्षणिका-बालक-बालिकाएं दोनों ही शिक्षा ग्रहण करती थीं। शिक्षा गुरु-कृपापर निर्भर रसीधी। विद्यार्थी गुरुभक्त रहते थे और गुरु सांसारिक माया-ममतासे विरक्त ।
यातायात-यातायातके साधन अत्यन्त सीमित थे। मार्गमें भीलों आदिके उपद्रवका डर रहता या अतः लोग सार्थ-ण्ड बनाकर चलते थे।
धार्मिक वैदिक धर्म और श्रमणधर्म-दोनों ही प्रचलित थे।
आभार प्रदर्शन
भारतवर्ष में भारतीय ज्ञानपीठ एक सच्चकोटिकी प्रकाशन संस्था है और अपने उच्चकोटिके प्रकाशनोंसे उसने कल्पसमयमें ही बड़ी ख्याति प्राप्ति की है। यह सब उदारमना साहु शान्तिप्रसादजीकी उदारताका फल है। इसी संस्थाकी ओरसे इसका प्रकाशन हो रहा है। अतः संस्था सम्पादक और संचालक धन्यवादके पात्र है। लम्बे-लम्बे समासोंसे युक्त संस्कृत गद्य-काव्यको...-संस्कृत टीका लिखना उतना कठिन नहीं है जितना कि हिन्दी टोका । यदि समासके अनुसार अर्थ किया जाता है तो भाषाका सौन्दर्य नष्ट होता है और भाषाके सौन्दर्य की ओर रष्टि रखी जाती है तो प्रन्थका हार्द प्रकट नहीं हो पाता। हिन्दी टीका लिखते समय में बड़े असमंजस में पड़ा, फिर भी जैसा कुछ बन सका मैंने दोनोंको संभालनेका प्रयत्न किया है।
पामारके प्रकरणमें मैं सर्वप्रथम टी० एस० कुप्पु स्वामीके प्रति अत्यन्त कृतज्ञ हूँ, जिन्होंने कि जीवन्धरसे सम्बद्ध संस्कृत-साहित्यको सुसम्पादित कर प्रकाशमें लानेका सर्वप्रथम उपक्रम किया था। सन् १९२५ में जब मैंने क्षत्रचूडामणि पड़ी थी तब अबोध दशाके कारण मैं आदरणीय कुप्पु स्वामीके सम्पादन-श्रमका मूल्य नहीं क सका था पर बाज मुझे लगता है कि उसके सम्पादनमें उन्होंने भारी श्रम किया था। आज उनको सम्पादित क्षत्रचूडामणि उपलब्ध नहीं। क्या ही अच्छा हो कोई प्रकाशन संस्था उसे हिन्दी अनुवादके साथ पुनः प्रकाश में लानेकी उदारता दिखावे ।
गचिन्तामणिके इस संस्करण के तैयार कराने में श्री पं० के० भुजबली शास्त्रीका महान् प्रयत्न है। चारोंकी चार हस्तलिखित प्रतियां आपने ही जुटाकर भेजनेकी कृपा की थो तथा प्रस्तावना कादिके विषयमें उचित परामर्श हमें आपसे प्राप्त होते रहे हैं। आप सुदूरवर्ती स्थानमें रहकर भी प्रत्येक पत्रका उत्तर देते हैं और महत्त्वपूर्ण सुझाव दिया करते हैं। वादीभसिंह तरिके समय निर्धारण करने में श्रीमान् पं० कैलाशचन्द्रजी शास्त्रीको न्यायकुमुद चन्द्रोदय प्र०भा०की प्रस्तावना, और पं० दरबारीलालजी कोठिया न्यायाचार्यकी स्याद्वावादसिद्धिको प्रस्तावनासे पर्याप्त साहाय्य प्राप्त हुआ है। इसी विषय में श्रीभुजबली शास्त्रीके जैन सिद्धान्त भास्करमें तथा स्व० आदरणीय प्रेमीजी के जैन-साहित्य और इतिहास में प्रकाशित लेख कम सहायक नहीं हुए हैं। जीयन्घर चम्पमें प्रकाशित आदरणीय डॉ० ए०एन० उपाध्ये जी तथा डॉ० हीरालालजीकी अँगरेजो प्रस्तावनासे भी मुझे उचित दिशा प्राप्त हुई है। संस्कृत कर्णाटक और आन्ध्र भाषाके विद्वान् श्रीदेवरभट्ट तथा हमारे अनन्य स्नेही पं० अमृतलालजी जैन दर्शनाचार्य, वाराणसीने भी इसके पाठभेद संकलित कर उचित सहायता पहुंचायी है अत: मैं उक्त समस्त विद्वानोंके प्रति अपनी नम्र कृतशता प्रकट करता हूँ। .