________________
श्रीमद् राजचन्द्र
[उत्तम गृहस्थ
(२) पिता-पुत्र ! गुरु तीन प्रकारके कहे जाते हैं:-काष्ठस्वरूप, कागजस्वरूप और पत्थरस्वरूप । काष्ठस्वरूप गुरु सर्वोत्तम हैं। क्योंकि संसाररूपी समुद्रको काष्ठस्वरूप गुरु ही पार होते हैं, और दूसरोंको पार कर सकते हैं । कागज़स्वरूप गुरु मध्यम हैं । ये संसार-समुद्रको स्वयं नहीं पार कर सकते, परन्तु कुछ पुण्य उपार्जन कर सकते हैं । ये दूसरेको नहीं पार कर सकते । पत्थरस्वरूप गुरु स्वयं डूबते हैं, और दूसरोंको भी डुबाते हैं। काष्ठस्वरूप गुरु केवल जिनेश्वर भगवान्के ही शासनमें हैं। बाकी दोनों प्रकारके गुरु कर्मावरणकी वृद्धि करनेवाले हैं । हम सब उत्तम वस्तुको चाहते हैं, और उत्तमसे उत्तम वस्तुएं मिल भी सकती हैं। गुरु यदि उत्तम हो तो वह भव-समुद्रमें नाविकरूप होकर सद्धर्म-नावमें बैठाकर पार पहुंचा सकता है। तत्त्वज्ञानके भेद, स्वस्वरूपभेद, लोकालोक विचार, संसार-स्वरूप यह सब उत्तम गुरुके विना नहीं मिल सकता । अब तुम्हें प्रश्न करनेकी इच्छा होगी कि ऐसे गुरुके कौन कौनसे लक्षण हैं ? सो कहता हूँ। जो जिनेश्वर भगवान्की कही हुई आज्ञाको जानें, उसको यथार्थरूपसे पालें, और दूसरेको उपदेश करें, कंचन और कामिनीके सर्वथा त्यागी हों, विशुद्ध आहार-जल लेते हों, बाईस प्रकारके परीषह सहन करते हों, क्षांत, दांत, निरारंभी और जितेन्द्रिय हों, सैद्धान्तिक-ज्ञानमें निमग्न रहते हों, केवल धर्मके लिये ही शरीरका निर्वाह करते हों, निग्रंथ-पंथको पालते हुए कायर न होते हों, सींक तक भी विना दिये न लेते हों, सब प्रकारके रात्रि भोजनके त्यागी हों, समभावी हों, और वीतरागतासे सत्योपदेशक हों; संक्षेपमें, उन्हें काष्ठस्वरूप सद्गुरु जानना चाहिये । पुत्र ! गुरुके आचार और ज्ञानके संबंधमें आगममें बहुत विवेकपूर्वक वर्णन किया गया है । ज्यों ज्यों तू आगे विचार करना सीखता जायगा, त्यों त्यों पीछे मैं तुझे इन विशेष तत्वोंका उपदेश करता जाऊँगा।
पुत्र-पिताजी, आपने मुझे संक्षेपमें ही बहुत उपयोगी और कल्याणमय उपदेश दिया है । मैं इसका निरन्तर मनन करता रहूँगा।
१२ उत्तम गृहस्थ संसारमें रहने पर भी उत्तम श्रावक गृहस्थाश्रमके द्वारा आत्म-कल्याणका साधन करते हैं, उनका गृहस्थाश्रम भी प्रशंसनीय है ।
ये उत्तम पुरुष सामायिक, क्षमापना, चोविहार प्रत्याख्यान इत्यादि यम नियमोंका सेवन करते हैं। पर-पत्नीकी ओर मा बहिनकी दृष्टि रखते हैं। . सत्पात्रको यथाशक्ति दान देते हैं। शांत, मधुर और कोमल भाषा बोलते हैं। सत् शास्त्रोंका मनन करते हैं । यथाशक्ति जीविकामें भी माया-कपट इत्यादि नहीं करते । स्त्री, पुत्र, माता, पिता, मुनि और गुरु इन सबका यथायोग्य सन्मान करते हैं। मा बापको धर्मका उपदेश देते हैं।