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श्रीमद् राजबन्द्र ..
[७७१, ७७२, ७७३, ७७४
७७१ स्वपर परमोपकारक परमार्यमय सत्यधर्म जयवंत वर्तो. आश्चर्यकारक भेद पड़ गये हैं। खंडित है। सम्पूर्ण करनेके साधन कठिन मालूम होते हैं। उस प्रभावमें महान् अंतराय हैं। देश-काल आदि बहुत प्रतिकूल हैं । वीतरागोंका मत लोक-प्रतिकूल हो गया है।
रूदीसे जो लोग उसे मानते हैं, उनके लक्षमें भी वह प्रतीत मालूम नहीं होता; अथवा वे अन्यमतको ही वीतरागोंका मत समझकर प्रवृत्ति करते हैं ।
यथार्य वीतरागोंके मत समझनेकी उनमें योग्यताकी बहुत कमी है। दृष्टिरागका प्रबल राज्य विद्यमान है। वेष आदि व्यवहारमें बड़ी विडम्बना कर जीव मोक्षमार्गका अन्तराय कर बैठा है। तुच्छ पामर पुरुष विराधक वृत्तिके बहुत अग्रभागमें रहते हैं।
किंचित् सत्य बाहर आते हुए भी उन्हें प्राणोंके घात होनेके समान दुःख मालूम होता है, ऐसा दिखाई देता है।
७७२
फिर तुम किसलिये उस धर्मका उद्धार करना चाहते हो !
परम कारुण्य-खमावसे. उस सद्धर्मके प्रति परम भक्तिसे.
७७३ परानुग्रह परमकारुण्यवृत्ति करते हुए भी प्रथम चैतन्यजिनप्रतिमा हो, चैतन्यजिनप्रतिमा हो.
क्या वैसा काल है ! उसमें निर्विकल्प हो । क्या वैसा क्षेत्र योग है ! खोजकर । क्या वैसा पराक्रम है ! अप्रमत्त शूरवीर बन । क्या उतना आयुबल है ! क्या लिखें ! क्या कहें ! अन्तर्मुख उपयोग करके देख ।
ॐ शांतिः शांतिः शांतिः.
७७४ हे काम ! हे मान ! हे संगउदय! हे वचनवर्गणा! हे मोह ! हे मोहदया!