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परिशिष्ट (१)
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अष्टसहस्री
विद्यानन्दस्वामीकी आप्तमीमांसापर लिखी हुई टीकाका नाम अष्टसहस्री है। इस ग्रन्थमें बहुत प्रौढ़ताके साथ जैनदर्शनके स्याद्वाद सिद्धांतका प्रतिपादन किया गया है । अष्टसहस्रीके ऊपर श्वेताम्बर विद्वान् उपाध्याय यशोविजयजीने नव्यन्यायसे परिपूर्ण टीका भी लिखी है। विद्यानन्द आदिमें ब्राह्मण थे । उनका मीमांसा बौद्ध आदि दर्शनोंका बहुत अच्छा अध्ययन था । वे अपने समयकें एक बहुत अच्छे कुशल वादी गिने जाते थे । विद्यानन्दजीने तत्त्वार्थसूत्रके ऊपर तत्त्वार्थश्लोकवार्त्तिक नामकी दार्श - निक टीका भी लिखी है, जिसका जैनसाहित्यमें उच्चस्थान है । इसके अतिरिक्त इन्होंने आप्तपरीक्षा पत्रपरीक्षा आदि और भी महत्वशाली ग्रन्थ लिखे हैं । आप्तपरीक्षामें ईश्वरकर्तृत्व आदि सिद्धांतोंका विद्वत्तापूर्ण विवेचन किया गया है। इनका समय ईसवी सन् ९ वीं शताब्दि माना जाता है । अष्टावक्र
अष्टावक्र सुमतिके गर्भसे उत्पन्न हुए थे । इनके पिताका नाम कहोड़ था । एक दिन अष्टावक जब गर्भमें थे, कहोड़ अपनी पत्नीके पास बैठे हुए वेदका पाठ कर रहे थे । वेदपाठमें उनकी कहीं भूल हो गई, जिसे गर्भस्थ शिशुने बता दिया । इसपर कहोड़को बहुत क्रोध आया, और उन्होंने गर्भस्थ शिशुसे कहा कि जब तेरा स्वभाव अभीसे इतना वक्र है, तो आगे जाकर न मालूम तू क्या करेगा । अतएव जा, मैं तुझे शाप देता हूँ कि तू अष्टावक्र होकर जन्म ग्रहण करेगा । कहते हैं इसपर शिशुका शरीर आठ जगहसे टेढ़ा हो गया, और उसका नाम अष्टावक्र पड़ा । बादमें चलकर इनके पिताने अष्टावक्रसे प्रसन्न होकर इन्हें समंगा नदीमें स्नान कराया, जिससे अष्टावक्रकी वक्रता तो दूर हो गई, पर नाम इनका फिर भी वही रहा । अष्टावक्र जनकके गुरु थे। उन्होंने जो जनकको उपदेश दिया, वह अष्टावक्र गीतामें दिया है ।
आचारांग ( आगमग्रंथ ) - इसका राजचंद्रजीने अनेक स्थलोंपर उल्लेख किया है ।
आत्मसिद्धिशास्त्र ( देखो प्रस्तुत ग्रंथ पृ. ५८५ - ६२२ ).
आत्मानुशासन
आत्मानुशासनके कर्ता दिगम्बर सम्प्रदायमें गुणभद्र नामके एक बहुत प्रसिद्ध विद्वान हो गये हैं। ये आदिपुराणके कर्ता जिनसेनस्वामीके शिष्य थे। ये दोनों गुरु शिष्य अमोघवर्ष महाराजके समकालीन थे । गुणभद्र स्वामीने उत्तरपुराणकी भी रचना की है, जिसे उन्होंने शक संवत् ८२० में समाप्त किया था । गुणभद्र न्याय काव्य आदि विषयोंके बहुत अच्छे विद्वान थे । आत्मानुशासनकी कई टीकायें भी हुई हैं। इनमें पं० टोडरमलजीकी हिन्दी टीका बहुत प्रसिद्ध है। इसका गुजराती अनुवाद भी हुआ है । इस अध्यात्मके ग्रंथको दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों बहुत चाव से पढ़ते हैं । आनन्द श्रावक
आनन्द श्रावककी कथा उपासकदशासूत्रमें आती है। एक बारकी बात है कि गौतमस्वामी भिक्षाकें लिये जा रहे थे । उन्होंने सुना कि महावीरके शिष्य आनन्दने मरणान्त सल्लेखना स्वीकार की है। गौतमने आनन्दको देखनेका विचार किया । आनन्दने गौतमस्वामीको नमस्कार करके पूछा कि भगवन् ! क्या गृहस्थावस्थामें अवधिज्ञान होता है ? गौतमने कहा 'हाँ' होता है। इसपर आनन्दने