Book Title: Shrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Author(s): Shrimad Rajchandra, 
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 903
________________ परिशिष्ट (१) - ८११ कर्कटी राक्षसी कर्कटी राक्षसी हिमालय पर्वतके शिखरपर रहा करती थी। एक बार उसकी इच्छा हुई कि मैं जम्बूद्वीपके संपूर्ण जीवोंका भक्षण करके तृप्त होऊँ । यह विचार कर वह पर्वतकी गुफामें एक टॉगसे खडी हो, भुजाओंको ऊँचा कर, आँखोंको आकाशकी ओर स्थिर कर तप करने लगी। इस दशामें उसे हजार वर्ष बीत गये। तब वहाँ ब्रह्माजी आये और उन्होंने उससे वर माँगनेको कहा। राक्षसीने कहा कि मैं चाहती हूँ कि मैं लोहेकी तरह वज्रसूचिका होऊँ, और जीवोंके हृदयमें प्रवेश कर सकूँ । ब्रह्माजीने यह वरदान स्वीकार किया, और कहा कि तू दुराचारियोंके हृदयमें तो प्रवेश कर सकेगी, पर गुणवानों के हृदय में तेरा प्रवेश न होगा । तदनुसार कर्कटीका शरीर सूक्ष्मातिसूक्ष्म होने लगा । इस प्रकार वह राक्षसी कितने ही वर्षोंतक प्राणीवध करती रही । परन्तु इससे राक्षसीको बहुत दुःख हुआ, और वह अपने पूर्व शरीरके लिये बहुत बहुत पश्चात्ताप करने लगी। उसने फिर से तप करना आरंभ किया, और उसे फिर हजार वर्ष घोर तप करते हुए हो गये । इससे सात लोक तप्तायमान हुए । इसपर ब्रह्माजीने फिर कर्कटीको दर्शन दिये, और वर माँगनेको कहा । कर्कटीने उत्तर दिया, ' अब मुझे किसी भी वरकी कामना नहीं, अब मैं निर्विकल्प शांति में स्थित हो गई हूँ । इसपर ब्रह्माजीने उसे राक्षसीके शरीरमें ही जीवन्मुक्त होकर विचरनेका वरदान दिया, और कहा कि तू पापी जीवोंका भक्षण करती हुई विचर, और फिरसे पूर्व शरीरको प्राप्त कर । कुछ समय बाद कर्कटी हिमालयपरसे उतर कर किरातदेशमें पहुँची, और उसने वहाँ किरातदेशके राजाको अपने मंत्री और वीरोंके साथ यात्राके लिये जाते हुए देखा। उसने सोचा कि ऐसे मूढ़ अज्ञानियोंको भक्षण कर जाना ही ठीक है, क्योंकि इससे लोककी रक्षा होती है । बस राक्षसी उन्हें देख गर्जना करने लगी, और उसने उन्हें अपना भोज्य बनानेके लिये ललकारा। इसके बाद किरातदेशके राजा-मंत्री और राक्षसीके बहुतसे प्रश्नोत्तर हुए। राक्षसी परम शांत हो गई, और उसने जीव- वधका त्याग किया । यह वर्णन योगवासिष्ठके उत्पत्तिप्रकरणके ६८ और ७७-८३ सर्गोंमें आता है । , कर्मग्रन्थ 1 जो महत्त्व दिगम्बर सम्प्रदाय में गोम्मटसार आदि सिद्धांतग्रंथोंका है, वही महत्त्व श्वेताम्बर आम्नायमें कर्मग्रन्थका है । इस ग्रन्थके कर्मविपाक, कर्मस्तव, बंधस्वामित्व, षडशीतिक, शतक और सप्ततिका ये छह प्रकरण हैं । ये क्रमसे पहला, दूसरा, तीसरा, चौथा, पाँचवा और छठा कर्मग्रन्थके नामसे प्रसिद्ध हैं । कर्मग्रन्थके कर्त्ता श्वेताम्बर विद्वान् देवेन्द्रसूरि हैं । इनका जन्म लगभग सं० १२७५ में हुआ था । देवेन्द्रसूरि जैनागमके प्रखरवेत्ता और संस्कृत प्राकृतके असाधारण पंडित थे । इनके गुरुका नाम जगचन्द्रसूरि था । इन्होंने श्राद्ध दिनकृत्यसूत्रवृत्ति, सिद्धपंचाशिकासूत्रवृत्ति, सुदर्शनचरित्र आदि अनेक प्रन्थोंकी रचना की है । राजचन्द्रजीने पत्रांक ४१७ में 'मूलपद्धति कर्मप्रन्थ ' के पढ़नेके लिये किसी मुमुक्षुको अनुरोध किया है। मालूम होता है इससे उनका तात्पर्य मूल कर्मग्रन्थसे ही है + | राजचन्द्रजीने अनेक स्थलोंपर कर्मग्रंथके पठन-मनन करनेका उल्लेख किया है । + श्रीयुत दलसुखभाई मालवणीया इस विषय में पत्रसे सूचित करते हुए लिखते हैं-" मूलपद्धति कोई अलग ग्रन्थ तो सुननेमें नहीं आया । मूल कर्मग्रन्थका ही मतलब होना चाहिये । स्थानकवासी सम्प्रदायमें कर्मविषयक परिचय 'थोकड़ा' से प्राप्त करनेका रिवाज है । अतः उन्होंने (राजचन्द्रजीने) मूल कर्मग्रन्थ पढ़ने को लिखा होगा । —लेखक.

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