________________
परिशिष्ट (१)
८२३ देव च्युत हो जाते हैं । यह विचार कर पुद्गल त्रिदंड, कुंडिका और भगवे वस्त्रोंको धारणकर तापस आश्रममें गया और वहाँ अपने उपकरण रखकर इस बातको सबसे कहने लगा। इसपर लोग परस्पर कहने लगे कि यह कैसे संभव हो सकता है ! तत्पश्चात् भिक्षाको जाते समय, गौतमने भी लोगोंके मुंहसे इस बातको सुना। इस बातको गौतमने महावीर भगवान्से पूँछा । बादमें पुद्गल परिव्राजक विभंगज्ञानसे रहित हुआ, और उसने त्रिदंड कुंडिका आदिको छोड़कर, जैन प्रव्रज्या ग्रहण कर शाश्वत सुखको पाया । यह कथा भगवतीके ११ वे शतकके १२ ३ उद्देशमें आती है। पुण्डरीक ( देखो प्रस्तुत ग्रंथ, भावनाबोध पृ. ११८ ). पंचास्तिकाय ( देखो कुन्दकुन्द ). पंचीकरण
- पंचीकरण वेदान्तका ग्रन्थ है । इसके कर्ता श्रीरामगुरुका जन्म सं० १८४० में दक्षिण हैदराबादमें हुआ था । ये जातिके ब्राह्मण थे, और इन्होंने १६ वर्षकी अवस्थामें ब्रह्मचर्य ग्रहण किया था । ये महात्मा जगह जगह भ्रमण करके अद्वैतमार्गका उपदेश देते थे । इनके बहुतसे शिष्य भी थे । इन शिष्योंमें पं० जयकृष्णने पंचीकरणके ऊपर गुजराती भाषामें विस्तृत टीका लिखी है, जिसे वेदधर्मसभाने सन् १९०७ में प्रकाशित की है। श्रीरामगुरु संवत् १९०६ में बड़ोदेमें समाधिस्थ हुए। इसके अतिरिक्त अखा आदिने भी पंचीकरण नामके ग्रन्थ बनाये हैं। जैनेतर ग्रन्थ होनेपर भी वैराग्य और उपशमकी वृद्धिके लिये राजचन्द्रजीने कई जगह पंचीकरण आदि ग्रन्थोंके मनन करनेका उपदेश किया है। प्रबोधशतक
प्रबोधशतक वेदान्तका ग्रन्थ है। चित्तकी स्थिरताके लिये राजचन्द्रजीने इसे किसी मुमुक्षुके पढ़नेके लिये भेजा था। वे लिखते है " किसीको यह सुनकर हमारे विषयमें ऐसी शंका न करनी चाहिये कि इस पुस्तकमें जो कुछ मत बताया गया है, वही हमारा भी मत है। केवल चित्तकी स्थिरताके लिये इस पुस्तकके विचार बहुत उपयोगी हैं।" प्रवचनसार ( देखो कुन्दकुन्द ). प्रवचनसारोद्धार
. यह प्रन्थ श्वेताम्बर आचार्य नेमिचन्द्रसूरिका बनाया हुआ है । मूल ग्रन्थ प्राकृतमें है । इस प्रन्थके विषयके अवलोकनसे मालूम होता है कि नेमिचन्द्र जैनधर्मके एक बड़े अद्वितीय पंडित थे । इस प्रन्थके ऊपर सिद्धसेनसूरिकी टीका जामनगरसे सन् १९१४ में प्रकाशित हुई है। प्रवचनसारोद्धार प्रकरणरत्नाकरमें भी प्रकाशित हुआ है । इसमें तीसरे भागमें जिनकल्पका वर्णन है। प्रवीणसागर
प्रवीणसागरमें विविध विषयोंके उपर ८४ लहरें हैं । इनमें नवरस, मृगया, सामुद्रिकचर्चा, कामविहार, संगीतभेद, नायिकाभेद, नाडीभेद, उपालंमभेद, ऋतुवर्णन, चित्रभेद, काव्यचित्रबंध, अष्टांगयोग आदि विषयोंका सुन्दर वर्णन है। इस ग्रन्थको राजकोटके कुंवर महेरामणजीने स. १८३८ में