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परिशिष्ट (१) नैपोलियन
नैपोलियनका जन्म १५ अगस्त सन् १७६९ में कार्सिका द्वीपमें हुआ था। इन्होंने १६ वर्षकी अवस्थामें लेफ्टिनेंटका पद प्राप्त किया। नैपोलियनने रूस, आस्ट्रिया और इंगलैंडके साथ बहुत समयतक अपने देश फ्रांसकी रक्षाके लिये युद्ध किया, और विजयी होकर अपनी असाधारण प्रतिमा और वीरताकी समस्त विश्वके ऊपर छाप मारी । नैपोलियन असाधारण वीर था, उसमें साहस तो कूट कूट कर भरा हुआ था। वह कहा करता था कि कोषमेंसे 'असंभव' शब्दको ही निकाल डालना चाहिये, क्योंकि उधमके सामने कोई भी काम कठिन नहीं। परन्तु मनुष्यकी दशा सदा एकसी नहीं रहती । सन् १८१४ में इंगलैंड, रूस और आस्ट्रियाकी संगठित सेनाके सामने इसे हार माननी पड़ी, और इसे एल्वामें जाकर रहनेकी आज्ञा हुई। नैपोलियन कुछ महीने एल्वामें रहा । बादमें इसने वहाँसे निकलकर फिर फ्रांसपर अधिकार कर लिया। परिणाम यह हुआ सन् १८१५ में इसे फिर समस्त युरोपके सम्मिलित दलका सामना करना पड़ा । इस समय इसे इसके साथियोंने धोखा दिया । फलतः नैपोलियनकी वाटरलूके युद्ध में हार हुई और सम्राट् नैपोलियन सदाके लिये सो गया। नैपोलियनने भागकर अंग्रेजी झंडेकी शरण ली। यहाँ इसे बंदी कर लिया गया और इसे सैंट हेलनामें सदाके लिये निर्वासित जीवन व्यतीत करनेकी आज्ञा हुई। यहाँ नैपोलियनने पाँच वर्ष अतीव कष्टप्रद अवस्थामें बिताये । यहाँ उसके साथ अत्यंत अन्याय और नीचतापूर्ण बर्ताव किया गया। अन्तमें नैपोलियन धीरे धीरे बहुत निर्बल हो गया, और उस वीर सैनिकने ५ मई सन् १८२१ में अपने प्राणोंका त्याग किया। " यदि तू सत्तामें मस्त हो तो नैपोलियन बोनापार्टको दोनों स्थितिसे स्मरण कर"-'श्रीमद् राजचन्द्र' पृ. २. पतंजलि
___ योगाचार्य पतंजलि कब हुए और कहाँके रहनेवाले थे, इत्यादि बातोंके संबंधमें कोई निश्चित पता नहीं लगता। पतंजलि आधुनिक योगसूत्रोंके व्यवस्थापक माने जाते हैं। कुछ विद्वानोंका मत है कि पाणिनीयव्याकरणके महाभाष्य और चरकसंहिताके रचयिता भी ये ही पतंजलि हैं । इन विद्वानोंके मतमें पतंजलिका समय इसवी सन्के पूर्व १५० वर्ष माना जाता है । पातंजलयोगसूत्रोंपर अनेक भाष्य टीकायें आदि हैं । इनके संबंधमें राजचन्द्रजी लिखते हैं-" पातंजलयोगके कर्ताको सम्यक्त्व प्राप्त नहीं हुआ था; परन्तु हरिभद्रसूरिने उन्हें मार्गानुसारी माना है।" पवनन्दिपंचविंशतिका
इस ग्रंथके कर्ता पमनन्दी आचार्य हैं । जैन सम्प्रदायमें पद्मनन्दि नामके अनेक विद्वान् हो गये हैं। प्रस्तुत पद्मनन्दी दिगम्बर जैन विद्वान् थे। इन्होंने अन्य ग्रंथोंकी भी रचना की है । परनन्दि प्राकृतके बहुत पंडित थे । इन्होंने इस प्रन्थमें वीरनन्दीको नमस्कार किया है । इनके समयका कल निश्चित पता नहीं लगता । पननन्दिपंचविंशति जैन समाजमें बहुत आदरसे पढ़ा जाता है। इस प्रथमें पच्चीस प्रकरण हैं। वैराग्यका यह अत्युत्तम ग्रन्थ है। इस प्रन्थकी एक हस्तलिखित संस्कृत टीका भी है। इस ग्रंथको पठन करनेका राजचन्द्रजीने कई जगह उल्लेख किया है ।