Book Title: Shrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Author(s): Shrimad Rajchandra,
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal
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परिशिष्ट (२)
पृष्ठ लाइन सिरिवीरजिणं वंदिअ कम्मविवागं समासओ वुच्छं । कीरई जिएण हेऊहिं जेणं तो भण्णए कम ॥
[प्रथम कर्मग्रन्थ १–देवेन्द्रसूरि; आगरा १९१८ ] ६२३-१५ [ हाँसीमें विषाद बसै विद्यामैं विवाद बसै कायामैं मरन गुरु वर्त्तनमैं हीनता । सुचिमै गिलानि बसै प्रापतिमैं हानि बसै जैमैं हारि सुंदर दसामैं छवि छीनता ॥ रोग बसै भोगमैं संजोगमैं वियोग बसै गुनमैं गरब बसै सेवामांहि दीनता और जग रीति जेती गर्भित असाता सेती] सुखकी सहेली हे (है) अकेली उदासीनता।
[समयसारनाटक पृ. ४३५-६] १६०-२५ अध्यात्मनी जननी ते उदासीनता ।
[यह पद स्वयं रायचन्द्रजीका बनाया हुआ हो सकता है ] १६०-२५ सुख दुः (द) खरूप करमफल जाणो निश्चय एक आनंदो रे । चेतनता परिणाम न चूके चेतन कहे जिनचंदो रे ॥ [आनंदघनचौबीसी वासुपूज्यजिनस्तवन ४, पृ. ७७ ]
२८१-२२ सुखना सिंधु श्रीसहजानंदजी जगजि (जी) वनके (ह! ) जगवंदजी। शरणागतना सदा सुखकंदजी परमस्नेही छो (छे ) परमानन्दजी ॥
[धीरजाख्यान १–निष्कुलानन्द; काव्यदोहन भाग २, पृ. ५३९] २५४-२३ सुहजोगं पदु (डु) चं अणारंभी, असुहजोगं पदु (डु)चं आयारंभी परारंभी तदुभयारंभी ।
[ भगवती ] १९४-२४ [ जोई दिग ग्यान चरनातममैं बैठि ठौर भयौ निरदौर पर वस्तुकौं न परसै ] शु (सु) द्धता विचारै ध्यावै शु (सु) द्धतामें केली करे (३)। शु (सु) द्धतामें थिर व्हे (है) अमृतधारा वरसे (बरसै)॥ [त्यागि तन कष्ट है सपष्ट अष्ट करमको करि थान भ्रष्ट नष्ट कर और करसै सोतौ विकलय विजई अलपकाल मांहि त्यागी भौ विधान निरवान पद परसै] २८३-२) [समयसारनाटक पृ. ३८२ ]
३६१-४ सो धम्मो जथ्य (त्य) दया दसट्टदोसा न जस्स सो देवो । सो हु गुरु (रू) जो नाणी आरंभपरिग्गह ( हा ) विरओ ॥ [ ] ४४६-७ संबुल (जा) हा जंतवो माणुसत्तं ददु (दहुं) भयं बालिसेणं अलंभो । एगंतु दुख्खे (क्खे ) जरिए व लोए सकम्म (म्मु ) णा विपरियासु विति (विपरिया सुवेइ) ॥
[ सूत्रकृतांग १-७-२२, पृ. ३९] ३६६-२०

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