Book Title: Shrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Author(s): Shrimad Rajchandra, 
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

View full book text
Previous | Next

Page 963
________________ अशुद्ध पृष्ठ लाइन १५८-२६, २७ अपना विचार...... सिद्ध हो जाय १६०-१३ अनेक साधन जुटाये २६१-२५ यदि किसी भी... . जाय तो २६२ - १,२ आत्मा जबतक ...... रहता है। २६३ - १५ विशेष शास्त्रों...... विश्वास करना २६४-२ शान तो शानी...... भी है २६८-६ पत्र में २६८-८ आप और हम...... होते हैं १७३-१७ करने २७४-८ कुछ पता नहीं चलता २७९-२२ ऐसा कहा गया है २८०-२९ हो सके २८२-१ उसे २८९-२२ नहीं देखने २९० - १९ अप्रतिबंध संशोधन और परिवर्तन २९१-२५ समागम २९५-२७ और....ही ३०१-११ दूसरा ३११-५ वह ३११ - २५ और जो श्रद्धा हम समझते हैं। ३१८-२८ विवेचना ३१९ - १४ भावना ३२२ - २७, २८ प्रभावयोगमें ३२३ - ११ हम मानते हैं ३२३-१२ ही नहीं ३२३-१२ भी है ३२४-१ उपाधिमें ३२७-२१ अलौकिक ३३२-५ आधार ३३२-१६ परमार्थहेतुमूल ३३२ - १० जीव अपने...... करने वाला शुद्ध ऐसे जीवके दोष तीसरे प्रकार में समाविष्ट होते हैं । अनेक तरहकी साधना की यदि तीनों कालमें जड़ जड़ ही है और चेतन चेतन ही है तो फिर बंध और मोक्ष तो जड़ चेतनके संयोगसे है और वह संयोग तबतक है जबतक आत्माको अपने स्वरूपको भान नहीं रहता; परन्तु आत्माने तो अपने स्वभावका त्याग किया है। विशेष शास्त्रोंके शान के साथ भी यदि अपनी आत्माका स्वरूप जाना अथवा उसके लिये सच्चे मनसे आश्रय लिया तो लेकिन वे ही वेदादि शास्त्र ज्ञानरूप हैं, ऐसा वहीं ( हो पत्र में, तुम्हें, मुझे और हम सबको कौनसे वादमें दाखिल होना कराने मेल नहीं हो पाता कहते हैं जिसे नहीं अप्रतिबद्ध प्रसंग और जितनी भी क्रियायें हैं उन सबकी अपेक्षा दूसरे किन्तु उसके जिसे कि हम समझें कि विस्तार संभावना प्रभावयोगविषयक ८७१ माना नहीं; है ज्ञानी पुरुषके लिये सम्यनंदीसूत्र में ) कहा है। उपाधिके विषय में लौकिक पोषण परमार्थमूल हेतु व्यवहारका बिलकुल उत्थापन करनेवाला जीव अपने आपको

Loading...

Page Navigation
1 ... 961 962 963 964 965 966 967 968 969 970 971 972 973 974