Book Title: Shrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Author(s): Shrimad Rajchandra,
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal
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परिशिष्ट (२)
पृष्ठ लाइन मन महिलानुं वहाला उपरे बीजां काम करत रे ।
३०५-१२,२१] तेम श्रुतौ मन दृढ धरे ज्ञानाक्षेपकवंत रे॥
३०६-९,११ । [आठ योगदृष्टिनी स्वाध्याय ६-६ पृ. ३३८] ३०८-३/
३०९-२०) मंत्रतंत्र औषध नहीं जेथी पाप पलाय । वीतरागवाणी विना अवर न कोई उपाय ॥ [ अगाससे पं० गुणभद्रजी सूचित करते हैं कि यह पद्य स्वयं राजचन्द्रजीका है ] ७४८-२८ मा मुज्झह मा रज्जह मा दूसह ( दुस्सह ) इट्टनिहअढे (त्ये) सु । थिरमिच्छहि (ह) जह चित्तं विचित्तज्झाण (झाण) पसिद्धीए ॥ पणतीससोलछप्पणचउद्गमेगं च जवह ज्झा ( झा ) एह । परमेट्ठिवाचयाणं अण्णं च गुरूवएसेण ॥
[द्रव्यसंग्रह ] ७५४-१७ मारे काम क्रोध सब (जिनि ) लोभ मोह पीसि डारे इन्द्रिहुं (इन्द्रीऊ ) कतल करी कियो रजपूतो (तौ) है। मार्यों महामत्त मन मारे (मार्यो) अहंकार मीर मारे मद मछर ( मच्छर ) हू ऐसो रनरु (रू) तौ है । मारी आशा (सा) तृष्णा पुनि ( सोऊ ) पापिनी सापिनी दोउ (ऊ) सबको प्रहार करि निज पद ( पदइ) हूतौ (पहूतौ) है। सुंदर कहत ऐसो साधु कोई (ऊ) शू (सू) रवीर वैरि (री) सब मारिके निचिंत होई (इ) सूतो (तौ) है। [ सुंदरविलास शूरातनको अंग २१-११ सुंदरदास; बम्बई, १९६१ ] ४८१-९ मोक्षमार्गस्य नेतारं भेतारं कर्मभूभृताम् ।
७३३-२२१ ज्ञातारं विश्वतत्त्वानां वंदे तद्गुणलब्धये ॥ [तस्वार्थसूत्रटीका ] ७८५-३
८०१-१, योग असंख जे जिन कह्या घटमांही (हि) रिद्धि दाखी रे । नवपद तेमज जाणजो आतमराम छे साखी रे ॥ [ अष्ट सकल समृद्धिनी घटमांहि ऋद्धि दाखी रे ।] तिम नवपद ऋद्धि जाणजो आतमराम छे साखी रे ॥ योग असंख्य छे जिन कह्या नवपद मुख्य ते जाणो रे । एह तणे अवलंबने आतमध्यान प्रमाणो रे ॥ [ श्रीपालरास चतुर्थखंड विनयविजय-यशोविजयजी; पृ. १८४-५. भीमसिंह
माणिक बम्बई १९०६] ४७८-२

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