Book Title: Shrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Author(s): Shrimad Rajchandra, 
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 921
________________ परिशिष्ट (१) ८२९ स्वर्गमें उत्पन्न हुआ था, वहाँ आया । वह मदनरेखाको उसके पुत्रसे मिलानेके वास्ते ले गया । मदनरेखाके पुत्रका नाम नाम था । ये नमि ही आगे चलकर नमिराजर्षि हुए। बादमें मदनरेखाने भी दीक्षा ग्रहण की । महीपतराम रूपराम - गुजरात प्रसिद्ध साहित्यकार हो गये हैं । महीपतराम रूपराम अपने समयके बहुत अच्छे सुधारक थे । इन्होंने गुजरातीमें बहुतसी पुस्तकें लिखी हैं । एकबार इनकी साथ राजचन्द्रजीका अहमदाबादमें मिलाप हुआ । उस समय ' क्या भारतवर्षकी अधोगति जैनधर्मसे हुई ? ' इस विषयपर जो दोनों प्रश्नोत्तर हुए वे अंक ८०७ में दिये गये हैं । *मनोहरदास - मनोहरदास जातिसे नागर ब्राह्मण थे । ये भावनगर के रहनेवाले थे । इन्होंने फारसीका अच्छा अभ्यास किया था, और प्रथम फारसीमें ही उपनिषदोंके अनुवादको पढ़कर उपनिषदोंका ज्ञान प्राप्त किया था । बादमें इन्होंने व्याकरण और न्यायकी भी अच्छी योग्यता प्राप्त की । संवत् १८९४ में मनोहरदासजीने चतुर्थ आश्रम स्वीकार किया, और अपना नाम बदलकर सच्चिदानन्द ब्रह्मतीर्थ रक्खा । इस समय इन्होंने वेदान्तरहस्य - गर्भित एकाध संस्कृत ग्रंथोंकी भी रचना की । मनोहरदासजीने मनहरपदकी गुजराती और हिन्दी पदोंमें रचना की है। इन पदोंमें कुछ पदोंके अन्तमें ' मनोहर ' और कुछके अन्तमें ' सच्चिदानन्द ब्रह्म ' नाम मिलता है । इन पदोंमें मनोहरदासजीने वैराग्यपूर्वक ईश्वरभक्तिका निरूपण करते हुए पाखंड और ढोंगका मार्मिक वर्णन किया है । मनोहरदासजीने महाभारतके कुछ भाग और गीताके ऊपर भी गुजरातीमें टीका आदि लिखी है। इन्होंने पुरातनकथा और पंचकल्याणी वगैरह ग्रंथोंकी भी रचना की है । ये ग्रन्थ अभी प्रकाशित नहीं हुए । मनोहरदासजी संवत् १९०१ में देहमुक्त हुए । राजचन्द्रजीने मनहरपदके कुछ पद उद्धृत किये हैं । माणेकदास ये कोई वेदान्ती थे । इनका एक पद राजचन्द्रजीने उद्धृत किया है, जिसमें सत्संग की महिमा 'गाई है । मीराबाई - मीराबाई जोधपुर मेड़ता के राठौर रतनसिंहजीकी इकलौती बेटी थी। इनका जन्म संवत् १५५५ के लगभग माना जाता है। संवत् १५७३ में इनका विवाह हुआ । ये दस बरस के भीतर ही विधवा हो गई । मीराबाई के पदोंसे पता लगता है कि वे रैदासको अपना गुरु मानती थीं । मीराबाईके हृदयमें गिरिधर गोपालके प्रति बड़ी भक्ति थी; वे उनके प्रेममें मतवाली रहती थीं, और अपने कुलकी लोकलाज छोड़कर साधु संतोंकी सेवा करती थीं। जब मीराबाईका मन चित्तौड़ न लगा तब वे वृन्दावन चलीं गई । वहाँसे फिर द्वारका चली गई । मीराबाईके हृदयमें अगाध प्रेम और हार्दिक भक्ति थी । मीराबाई संस्कृत भी जानती थीं । उन्होंने गीतगोविन्दकी भाषापद्यमें टीका लिखी है । नरसीजीका मायरा और रागगोविन्द भी उनके रचे हुए कहे जाते हैं । मीराबाईकी कविता राजपूतानी बोली मिश्रित हिन्दी भाषामें है। गुजरातीमें भी मीराबाईने मधुर कविता लिखी है ।

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