Book Title: Shrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Author(s): Shrimad Rajchandra, 
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 938
________________ श्रीमद् राजचन्द्र पृष्ठ लाइन संग त्यागी (गि) अंग त्यागी (गि ) वचन तरंग त्यागी (गि) मन त्यागी (गि) बुद्धि त्यागी (गि) आपा शु (सु)द्ध कीनो (नौ) है ॥ [समयसारनाटक सर्वविशुद्धिद्वार १०९, पृ. ३७७-८] २८२-५ जारिस सिद्धसहावो तारिस सहावो सव्वजीवाणं । तम्हा सिद्धतरुई कायव्वां भव्वजीवेहिं ॥ [ सिद्धप्रामृत-कुन्दकुन्द ] ६३६-१४ जिन थई (इ) जिनने जे आराधे ते सही ( हि ) जिनवर होवे रे। भ्रं ( ) गी ईलीकाने चटकावे ते भ्रं ( )गी जग जोवे रे ॥ [आनंदघनचौबीसी-नमिनाथजिनस्तवन ७, पृ. १६०] १३०७-१८ जिनपूजा रे ते निजपूजना [ रे प्रगटे अन्वयशक्ति । परमानंद विलासी अनुभवे रे देवचन्द्र पद व्यक्ति ]॥ [वासुपूज्यस्तवन ७-देवचन्द्रजी] ६३६-१८ जिसने आत्मा जान ली उसने सब कुछ जान लिया। [जे एगं जाणई से सव्वं जाणई ] [ आचारांग १-३-४-१२२] १०-४ जीव ( मन ) तुं शीद शौचना धरे ! कृष्णने करवू होय ते करे । जीव ( चित्त ) तुं शीद शोचना धरे ! कृष्णने करवू होय ते करे ॥ [ दयाराम पद ३४, पृ. १२८; दयारामकृत भक्तिनीतिकाव्यसंग्रह अहमदाबाद १८७६] ३४६-१६ जीव नवि पुग्गली नैव पुग्गल कदा पुग्गलाधार नहीं तास रंगी। पर तणो ईश नहिं अपर ऐश्वर्यता वस्तु धर्मे कदा न परसंगी॥ [सुमतिजिनस्तवन ६ देवचन्द्रजी ] २७९-१६ जूवो (वा) आमिष मदिरा दारी आहे (खे ) टक चोरी परनारी । एहि (ई) सप्तव्यसन ( सात विसन ) दुः (दु ) खदाई दुरित मूल दुर्गति (दुरगति ) के जाई (भाई)॥ [समयसारनाटक साध्यसाधकद्वार २७ पृ. ४४४] ३८२-३० जे अबुद्धा महाभागा वीरा असमत्तदसिणो। असुद्धं तेसि (सिं ) परकंतं सफलं होई सव्वसो ॥१॥ जेय बुद्धा महाभागा वीरा सम्मत्तदंसिणो। सुद्धं तेसि परकंतं अफलं होइ सव्वसो॥२॥ [सूत्रकृतांग १-८-२२,२३ पृ. ४२] ३६१-१० (जे) एगं जाणई से सव्वं जाणई । जे सव्वं जाणई से एगं जाणई ॥ [आचारांग १-३-४-१२२ ] १५३-१०

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