Book Title: Shrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Author(s): Shrimad Rajchandra, 
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 940
________________ ८४८ श्रीमद् राजचन्द्र दीसे (सै) कर्मरही (हि) त सही (हि) त सुख समाधान पायो (यौ) निजथान फिरि बाहिर ( बाहरि ) न वहेगे ( बगौ ) । कबहु (हूँ) कदाचि अपनो (नौ) सुभाउ (व) त्यागि करि राग रस राचिके ( ) न परवस्तु गहेगो ( गगौ ) । अमलान ज्ञान विद्यमान परगट भयो (यौ ) याहि ( ही ) भांति आगम अनंतकाल रहेगो ( रहेगी ) ॥ [ समयसारनाटक सर्वविशुद्धिद्वार १०८, पृ. ३७६–७ ] यो ( जो ) गापयडिपयेशा ( पदेसा ) [ ठिदि अणुभागा कसायदो होंति ] [ द्रव्यसंग्रह ] [ ओधवजीने संदेसो गरबी ३- ३ – रघुनाथदास; बम्बई, सं. १९५१ ] जं संमति पासह (हा ) तं मोणंति पासह ( हा ) । [ जं मोणंति पासहा तं सम्मंति पासहा । ] [ आचारांग १ - ५ - ३ ] [ णवि सिज्झइ वत्थधरो जिणसासणे जइ वि होइ तित्थयरो ] नगाए (ग्गो) मोख ( विमोक्ख ) मग्गो शेषा ( सेसा ) य उमग्गया सव्वे ॥ जं किंचिवि चिततो णिरीहवित्ती हवे जदा साहू । लडूणय एयत्तं तदाहु तं तस्स णिज्छयं ( णिच्चयं) ज्झाण (झाणं ) || [ द्रव्यसंग्रह ] ७५४-२५ जंगमनी जुक्ति तो सर्वे जाणिये समीप रहे पण शरीरनो नहीं संग जो । एकांते वसवु रे एक आसने भूल ( भेख ? ) पडे तो पडे भजनमां भंग जो ॥ ओधवजी अबळा ते साधन शुं करे ॥ [ आनंदघनचौबीसी अजितनाथस्तवन ५, पृ. १२ ] तहारुवाणं समणाणं [ भगवती ] पृष्ठ लाइन [ यस्मिन्सर्वाणि भूतान्यात्मैवाभूद्विजानतः ] तत्र को मोहः कः शोकः एकत्वमनुपश्यतः ॥ [ ईशावास्य उपनिषद् ७ ] माटे उभा कर जोडी जिनवर आगळ कहिये रे । ६७७-१२ समयचरण सेवा शुद्ध देजो जेम आनंदघन लहिये रे ॥ [ आनंदघनचौबीसी नमिनाथजिनस्तवन ११, पृ. १६४ ] दर्शन सकलना नय ग्रहे आप रहे निजभावे रे | हितकरी जनने संजीवनी चारो तेह चरावे रे ॥ [ आठ योगदृष्टिनी स्वाध्याय १-४, पृ. ३३०; गुर्जरसाहित्यसंग्रह ] ७८४-१५ [ षट्प्राभृतादिसंग्रह सूत्रप्राभृत २३ - कुन्दकुन्द ; माणिकचन्द ग्रंथमाला बम्बई] ७८६-२५. तरतम योग रे तरतम वासना रे वासित बोध आधार । पंथडो० । ४९९-२० ५९८-१ ७४४-१३ ६४३-१८ २३३-२४ ६३०-४ ७६८-२० २७५-१३

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