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परिशिष्ट (१)
यशोविजयजीका जन्म संवत् १६८० के लगभग हुआ था। यशोविजयजीने सतरह-अठारह वर्षतक विद्याभ्यास करके जीवनपर्यंत साहित्यसर्जनमें ही अपना समय व्यतीत किया। आपने न्याय, योग, अध्यात्म, दर्शन, कथाचरित, धर्मनीति आदि सभी विषयोंपर अपनी प्रौढ़ लेखनी चलाई है। यशोविजयजीने वैदिक और बौद्धग्रन्थोंका गहन अभ्यास किया था । इन्होंने जैनदर्शनका अन्य दर्शनोंके साथ समन्वय करनेमें भी अत्यंत श्रम किया है। यशोविजयकी कृतियाँ आज भी बहुत-सी अनुपलब्ध हैं, फिर भी जो कुछ उपलब्ध हैं, वे यशोविजयजीका नाम सदाके लिये अमर रखनेके लिये पर्याप्त हैं । उन्होंने संस्कृतमें अध्यात्मसार, उपदेशरहस्य, शास्त्रवासिमुच्चयटीका, न्यायखंडनखाध, जैनतर्कपरिभाषा आदि बहुतसे ग्रन्थ लिखे हैं । गुजरातीमें इन्होंने डेढ़सौ गाथाका स्तवन, योगदृष्टिनी सज्झाय, श्रीपालरास, समाधिशतक आदि ग्रंथ बनाये हैं । यशोविजयजीने हिन्दीमें भी कवितायें लिखी हैं । ये सं० १७४३ में स्वर्गस्थ हुए । राजचन्द्रजीने यशोविजयजीके अध्यात्मसार, डेढसौ गाथाका स्तवन और योगदृष्टिनी सज्झायका उल्लेख किया है, तथा उपदेशरहस्य, योगदृष्टिनी सज्झाय, श्रीपालरास, समाधिशतक वगैरहके अनेक पद्य आदि उद्धृत किये हैं । यशोविजयजीके उम्र प्रशंसक होनेपर भी राजचंद्रजीने एक स्थलपर उनकी छमस्थ अवस्थाका दिग्दर्शन कराया है। योगकल्पद्रुम__यह कोई वेदान्तका ग्रंथ मालूम होता है । इसके पठन करनेका राजचंद्रजीने किसी मुमुक्षुको अनुरोध किया है । इसका अंक ३५७ में उल्लेख है। योगदृष्टिसमुच्चय (देखो हरिभद्र ). योगदृष्टिनी सज्झाय (देखो यशोविजय ). योगप्रदीप (देखो हरिभद्र ). योगविन्दु (देखो हरिभद्र ). योगवासिष्ठ
भारतीय साहित्यमें योगवासिष्ठ, जिसे महारामायण भी कहा जाता है, का स्थान बहुत ऊँचा है। योगवासिष्ठके कर्ता वसिष्ठ ऋषि माने जाते हैं। योगवासिष्ठमें बत्तीस हजार श्लोक हैं, जिनमें नाना कथा उपकथाओंद्वारा आत्मविद्याका अत्यन्त सुन्दर वर्णन किया है । इस ग्रन्थके छह प्रकरण हैं, और हरेक प्रकरणमें कई कई अध्याय हैं । योगवासिष्ठके अनेक संस्करण प्रकाशित हुए हैं। अभी एक संशोधित संस्करण निर्णयसागरसे प्रकाशित हो रहा है । इसके हिन्दी गुजराती आदिमें भी अनुवाद हुए हैं । अंग्रेज़ीमें एक विद्वत्तापूर्ण व्याख्या माननीय प्रो० भिक्खनलाल आत्रेय एम० ए०, डी० लिट्ने लिखी है। योगवासिष्ठकी रचनाके समयके विषयमें विद्वानोंमें बहुत मतभेद है। प्रो० आत्रेय इस ग्रन्थकी रचनाका समय ईसवी सन्की छठी शताब्दि मानते हैं। राजचंद्रजीने योगवासिष्ठका खूब मनन और निदिध्यासन किया था। वे लिखते हैं-" उपाधिका ताप शमन करनेके लिये यह शीतल चंदन है। इसके पढ़ते हुए आधि-व्याधिका आगमन संभव नहीं । " राजचंद्रजीने अनेक स्थलोंपर योगवासिष्ठको वैराग्य और उपशमका कारण बताकर उसे पुनः पुनः पढ़नेका मुमुक्षुओंको अनुरोध किया है । योगवासिष्ठके वैराग्य और मुमुक्षु नामके आदिके दो प्रकरण अलग भी प्रकाशित हुए हैं ।