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श्रीमद्राजचन्द्र जैनेतर विद्वानोंके साथ शास्त्रार्थ करके जैनधर्मकी ध्वजापताका फहराई थी। ये परीक्षाप्रधानी थे। श्वेताम्बर साहित्यमें भी स्वामी समंतभद्रका नाम बहुत महत्त्वके साथ लिया जाता है। राजचन्द्रजीने आप्तमीमांसाके प्रथम श्लोकका विवेचन लिखा है, और उसके भाषांतर करनेका किसी मुमुक्षुको अनुरोध किया है । समंतभद्रकी गंधहस्तिमहाभाष्य टीकाके विषयमें देखो पृ. ८०० का फुटनोट । सहजानंद स्वामी
स्वामीनारायण सम्प्रदायके स्थापक सहजानंद स्वामी अपने समयके महान् पुरुषोंमें गिने जाते हैं। इनका जन्म सन् १७८१ में हुआ था, इन्होंने सन् १८३० देहत्याग किया। इनके गुरुका नाम स्वामी रामानन्दजी था। इन्होंने तीस वर्षतक गुजरात, काठियावाड़ और कच्छमें घूम घूमकर हिंदु-अहिंदु समस्त जातियोंको अपना उपदेश सुनाया। इन्होंने चित्तशुद्धिके ऊपर सबसे अधिक भार दिया, और लोगोंको शराब माँस आदिका त्याग, ब्रह्मचर्यका पालन, यज्ञमें हिंसाका निषेध, व्रत संयमका पालन इत्यादि बातोंका उपदेश देकर सुमार्गपर चढ़ाया। सहजानन्द स्वामीकी शिक्षापत्री, धर्मामृत और निष्कामशुद्धि पुस्तकें प्रसिद्ध हैं। इनमें शिक्षापत्री अधिक प्रसिद्ध है। शिक्षापत्रीमें २१२ श्लोक हैं; जिनमें गृहस्थ, सधवा, विधवा, ब्रह्मचारी, साधु आदिके कर्त्तव्यधर्म आदिका विवेचन किया है। सहजानन्द स्वामीके वचनामृतका संग्रह गुजराती भाषाका एक रन माना जाता है । ' सहजानन्द स्वामी अथवा स्वामिनारायण संप्रदाय के ऊपर किशोरीलाल मशरूवाळाने गुजरातीमें पुस्तक लिखी है । सिद्धनामृत ( देखो कुन्दकुन्द ). सिद्धसेन
सिद्धसेन दिवाकर खेताम्बर आम्नायमें प्रमाणशास्त्रके प्रतिष्ठाता एक महान् आचार्य हो गये हैं। सिद्धसेन संस्कृत प्राकृतके उच्च कोटिके स्वतंत्र प्रकृतिके आचार्य थे । इन्होंने उपयोगवाद, नयवाद
आदि सिद्धांतोंको जैनधर्मकी प्रचलित मान्यताओंसे भिन्नरूपसे ही स्थापित किया था। सिद्धसेन दिगम्बर परम्परामें भी बहुत सन्मानकी दृष्टिसे देखे जाते हैं। सिद्धसेनने सन्मतितर्क, न्यायावतार, महावीर भगवान्की स्तुतिरूप द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका आदि ग्रंथोंकी रचना कर जैनसाहित्यकी महान् सेवा की है। द्वात्रिंशद्वात्रिंशिकामें इन्होंने वेद, वैशेषिक, सांख्य आदि दर्शनोंपर द्वात्रिंशिकायें रचकर सब दर्शनोंका समन्वय किया है । सिद्धसेन दिवाकरके संबंधमें बहुतसी किंवदन्तियां प्रसिद्ध हैं । इनका समय ईसवी सन्की चौथी शताब्दि माना जाता है । सन्मतितर्क न्यायका बहुत उत्तम ग्रंथ है । इसपर अभयदेवसूरिका टीका है । इस ग्रंथका विद्वत्तापूर्ण सम्पादन पं० सुखलाल और बेचरदासजीने किया है। यह गुजरात विद्यापीठसे निकला है । राजचन्द्रजीने सन्मतितर्कका अवलोकन किया था। मुदर्शन सेठ ( देखो मोक्षमाला पाठ ३३). मुद्दष्टितरंगिणी
इस ग्रंथके रचियता पं० टेकचन्दजी दिगम्बर विद्वान् हो गये हैं। इन्होंने सं० १८३८ में भद्रशालपुरमें ग्रंथको लिखकर समाप्त किया था। सुदृष्टितरंगिणीमें ४२ पर्व हैं, जिनमें जैनधर्मके सिद्धातोंको सरल हिन्दी भाषामें बहुत अच्छी तरह समझाया गया है। इस ग्रंथको वीर सं० २४५४ में पन्नालाल . चौधरीने बनारसमें प्रकाशित किया है।