Book Title: Shrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Author(s): Shrimad Rajchandra, 
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 926
________________ श्रीमद् राजचन्द्र सन्तति, स्वास्थ्य आदि सब कुछ प्राप्त था । ईसवी सन् १८७७ में विक्टोरियाको कैसरेहिन्द (Empress of India) का खिताब मिला। इनकी ही प्रेरणासे लेडी डफरिनने भारतमें जनाने अस्पताल खोले थे । विक्टोरियाको इंगलैंडके राजकोशसे ३७१८०० पौन्ड वार्षिक वेतन मिलता था। विक्टोरियाका अशक्ति बढ़ जानेके कारण सन् १९०१ में देहान्त हुआ। विचारसागर विचारसागर वेदान्तशास्त्रका प्रवेशग्रंथ माना जाता है। इसके कर्ता निश्चलदासका जन्म पंजाबमें सं० १८४९ में जाट जातिमें हुआ था। निश्चलदासजीने बहुत समयतक काशीमें रहकर विद्याभ्यास किया। निश्चलदासजी अपने ग्रंथमें दादुजीको गुरुरूपसे स्मरण करते हैं। इन्होंने और सुंदरदासजीने दादुपंथकी बहुत वृद्धि की । निश्चलदासजीकी असाधारण विद्वत्तासे मुग्ध होकर बूंदीके राजा रामसिंहने उन्हें अपने पास बुलाकर रक्खा और उनका बहुत आदर सत्कार किया था। विचारसागर और वृत्तिप्रभाकर निश्चलदास के प्रसिद्ध प्रन्थ हैं । कहा जाता है कि इन्होंने संस्कृतमें ईशावास्य उपनिषद्पर भी टीका लिखी है, और वैद्यकशास्त्रका भी कोई ग्रंथ बनाया है। इनका संस्कृतके २७ लाख श्लोकोंका किया हुआ संग्रह इनके 'गुरुद्वार' में अब भी विद्यमान बताया जाता है। विचारसागरकी रचना संवत् १९०५ में हुई थी। इसमें वेदान्तकी मुख्य मुख्य प्रक्रियाओंका बहुत सरलतापूर्वक प्रतिपादन किया है । यह मूलप्रन्थ हिन्दीमें है। इसके गुजराती, बंगाली, अंग्रेजी आदि भाषाओंमें भी अनुवाद हुए हैं। निश्चलदासजी ७० वर्षकी अवस्थामें दिल्ली में समाधिस्थ हुए। विचारसागरके मनन करनेके लिये राजचन्द्रजीने मुमुक्षुओंको अनेक स्थलोंपर अनुरोध किया है। . विचारमाला (देखो अनाथदास ). विदुर विदुर एक बहुत बड़े भारी नीतिज्ञ माने जाते हैं । विदुर बड़े ज्ञानी, विद्वान् और चतुर थे। महाराज पांडु तथा धृतराष्ट्रने क्रमशः इन्हें अपना मंत्री बनाया । ये महाभारतके युद्धमें पांडवोंकी ओरसे लड़े । अंतमें इन्होंने धृतराष्ट्रको नीति सुनाई, और उन्हींके साथ वनको चले गये, और वहाँ अनिमें जल मरे । इनका विस्तृत वर्णन महाभारतमें आता है। " सत्पुरुष विदुरके कहे अनुसार ऐसा कृत्य करना कि रातमें सुखसे सो सके।"-' श्रीमद् राजचन्द्र ' पृ. ५. विद्यारण्यस्वामी विद्यारण्यस्वामीके समयके विषयमें कुछ निश्चित पता नहीं चलता । विद्वानोंका अनुमान है कि वे सन् १३०० से १३९१ के बीचमें विद्यमान थे। विद्यारण्यस्वामीने छोटी अवस्थामें ही संन्यास ले लिया था। इन्होंने वेदोंके भाष्य, शतपथ आदि ब्राह्मणग्रन्थोंके भाष्य, उपनिषदोंकी टीका, ब्रह्मगीता, सर्वदर्शनसंग्रह, शंकरदिग्विजय, पंचदशी आदि अनेक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थोंकी रचना की है। विद्यारण्यस्वामी सर्व शाखोंके महान् पण्डित थे । इन्होंने अद्वैतमतका नाना प्रकारकी युक्ति प्रयुक्तियोंसे सुन्दर प्रतिपादन किया है। विहार पन्दावन इसका राजचन्द्रजीने एक पद उद्धृत किया है । इसके विषयमें कुछ विशेष ज्ञात नहीं हो सका।

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