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भीमद् राजचन्द्र आरंभ किया, और अपने सात मित्रोंकी सहायतासे पूर्ण किया था। कहते हैं कि कुंवर महेरामणजीको अपने मामा लीबंडीके ठाकुरकी पुत्री सुजनबाके साथ प्रेम हो गया था, और इस प्रेमको इन दोनोंने अंत समयतक निबाहा । प्रवीणसागरमें राजकुमारी सुजनबा (प्रवीण) ने महेरामणजी ( सागर ) को संबोधन करके, और महेरामणजीने राजकुमारीको संबोधन करके कवितायें लिखी हैं । राजचन्द्रजी लिखते हैं-: प्रवीणसागर समझपूर्वक पढ़ा जाय तो यह दक्षता देनेवाला ग्रंथ हैं, नहीं तो यह अप्रशस्त रागरंगोंको बढ़ानेवाला ग्रंथ है"। महादजी (देखो अनुभवप्रकाश). प्रश्नव्याकरण (आगमग्रंथ )--इसका कई जगह राजचन्द्रजीने उल्लेख किया है । प्रज्ञापना ( आगमग्रंथ )-इसका भी प्रस्तुत ग्रंथमें उल्लेख आता है। प्रीतमदास
__ये भक्त कवि भाट जातिके थे, और ये सन् १७८२ में मौजूद थे। ये साधु-संतोंके समागममें बहुत काल बिताते थे । इनकी कविता भी अन्य भक्तोंकी तरह वेदान्तज्ञान और प्रेमभक्तिसे पूर्ण है । प्रीतमदासको 'चरोतर' का रत्न कहा जाता है । इनके बड़े ग्रन्थ गीता और भागवतका ११ वाँ स्कंध हैं । इसके अतिरिक्त प्रीतमदासने अन्य भी बहुतसे पद गरबी इत्यादि लिखे हैं। 'प्रीतमदासनो कको' गुजरातीमें बहुत प्रसिद्ध है। श्रीमद् राजचन्द्र अपने भक्तोंसे इसे पढ़नेके लिये कहा करते थे। उन्होंने प्रीतमको मार्गानुसारी कहा है। प्रीतमदासने गोविंदरामजी नामक साधुका बहुत समयतक सहवास किया, और उन्हें अपना गुरु बनाया था। कहते हैं कि प्रीतमदास अन्त समय अंधे हो गये थे । ये उस समय भी पद-रचना करते थे। गुजराती साहित्यमें इनकी कविताओंका बहुत आदर है। बनारसीदास
__ बनारसीदासजी आगराके रहनेवाले श्रीमाली वैश्य थे। इनका जन्म सं० १६४३ में जौनपुरमें हुआ था । बनारसीदासजीका मूल नाम विक्रमाजीत था। इनके पिताको पार्श्वनाथके ऊपर अत्यंत प्रीति थी, इसलिये उन्होंने इनका नाम बनारसीदास रक्खा था । बनारसीदासजीको यौवन कालमें इश्कबाजीका बहुत शौक हो गया था । इन्होंने शृंगारके ऊपर एक प्रथ भी लिखा था, जिसे बादमें इन्होंने गोमती नदीमें बहा दिया था। बनारसीदासजीकी अवस्थामें धीरे धीरे बहुत परिवर्तन होता गया। इन्हें कुंदकुंद आचार्यके अध्यात्मरसके ग्रंथ पढ़नेको मिले, और ये निश्चयनयकी और झुके । इन्होंने निश्चयनयको पुष्ट करनेवाली ज्ञानपच्चीसी, ध्यानबत्तीसी, अध्यात्मबत्तीसी आदि कृतियोंकी रचना की । बनारसीदासजी चंद्रमाण, उदयकरण, थानमलजी आदि अपने मित्रोंसहित अध्यात्मचर्चामें डूबे रहते थे । अन्तमें तो यहाँतक हुआ कि ये चारों नग्न होकर अपनेको मुनि मान कर रहा करते थे। इसी कारण श्रावक लोग बनारसीदासको 'बोसरामती' कहने लगे थे । बनारसीदासजीकी यह एकांतदशा सं० १६९२ तक रही। बादमें इनको इस दशापर बहुत खेद हुआ, और इनका हृदय-पट खुल गया । इस समय ये आगरामें पं० रूपचन्द्र के समागममें बाये, और