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परिशिष्ट (१) करते रहे । ईसाने अपने धर्ममें सेवा, प्रेम, दया और सहानुभूतिपर अधिक भार दिया है । ईसाई लोग ईसाको ईश्वरका अवतार मानते हैं । बाइबिलमें उनके उपदेशोंका संग्रह है। ईसाके चमत्कारोंका बाइबिलमें वर्णन आता है । राजचन्द्रजीने ईसाईधर्मका विशेष अध्ययन नहीं किया था । महात्मा गांधीके प्रश्नोंका उत्तर देते हुए राजचन्द्रजीने पत्रांक ४४७ में ईसाईधर्मके विषयमें अपने विचार प्रकट किये हैं। आतमीमांसा ( देखो समंतभद्र ). इन्द्रियपराजयशतक
यह वैराग्यका अत्युत्तम छोटासा प्राकृतका प्रन्थ है । ग्रन्थके कर्ता कोई श्वेताम्बर विद्वान् हैं। इसके ऊपर सं० १६६४ में गुणविनय उपाध्यायने संस्कृत टीका लिखी है । इसका गुजराती भाषांतर हुआ है। हिन्दी पद्यानुवाद बुद्धलाल श्रावकने किया है, जो बम्बईसे प्रकाशित हुआ है । इन्द्रियपराजयशतक प्रकरणरत्नाकरमें भी छपा है । राजचन्द्रजीने इस ग्रंथके पढ़नेका अनुरोध किया है। उत्तराध्ययन ( आगमग्रन्थ )- इसका राजचंद्रजीने अनेक स्थलोंपर उल्लेख किया है। *उत्तमविजय
उत्तमविजय श्वेताम्बर आम्नायमें गुजरातीके अच्छे कवि हो गये हैं । इनके संयमश्रेणीस्तवनमेंसे राजचन्द्रजीने दो पद उद्धृत किये हैं । उक्त स्तवन प्रकरणरत्नाकरमें प्रकाशित हुआ है । उपमितिभवप्रपंचा कथा
उपमितिभवप्रपंचा कथा भारतीय साहित्यका संस्कृतका एक विशाल रूपक ग्रंथ ( allegory) माना जाता है। यह ग्रंथ साहित्यकी दृष्टिसे बहुत उच्च कोटिका है। इस ग्रंथके बनानेवाले सिद्धर्षि नामके एक प्रतिष्ठित जैनाचार्य हो गये हैं । सिद्धर्षि हरिभद्रसूरिकी बहुत पूज्यभावसे स्तुति करते हैं। ये हरिभद्रसूरि सिद्धर्षिको धर्मबोधके देनेवाले थे। सिद्धर्षि प्राकृत और संस्कृतके बहुत अच्छे विद्वान् थे । उन्होंने उपदेशमाला आदि प्राकृतके ग्रन्थोंपर संस्कृत टीकायें लिखी हैं । इन्होंने सिद्धसेन दिवाकरके न्यायावतारपर भी टीका लिखी है। सिद्धर्षिका विस्तृत वर्णन प्रभावकचरितमें आता है। उपमितिभवप्रपंचा कथाको सिद्धर्षिने सं० ९६२ में समाप्त किया था। इस ग्रंथके अनुवाद करनेके लिये राजचन्द्रजीने किसी मुमुक्षुको लिखा था।
ऋभु राजाका वर्णन महाभारतमें आता है । " पुराणमें ऋभु ब्रह्माके पुत्र थे । इन्होंने तपबलसे विशुद्धज्ञान लाभ किया था। पुलस्त्यपुत्र निदाघ इनके शिष्य थे । ये अतिशय कार्यकुशल थे। इन्होंने इन्द्रके रथ और अश्वगणको शोभित किया था, जिससे सन्तुष्ट होकर इन्द्रने इनके माता पिताको पुनयौवन प्रदान किया "-हिन्दी शब्दसागर । "ऋभु राजाने कठोर तप करके परमात्माका आराधन किया । परमात्माने उसे देहधारीके रूपमें दर्शन दिये, और वर माँगनेके लिये कहा । इसपर ऋभु राजाने वर माँगा कि हे भगवन् ! आपने जो ऐसी राज्यलक्ष्मी मुझे दी है, वह बिलकुल भी ठीक नहीं । यदि मेरे ऊपर तेरा अनुग्रह हो तो यह वर दे कि पंचविषयकी साधनरूप इस राज्यलक्ष्मी
* इस चिहके ग्रंय अथवा अंथकारोंका राजचन्द्रजीने साक्षात् उल्लेख नहीं किया, केवल उनके पद आदि ही उद्धृत किये हैं। -लेखक,
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