Book Title: Shrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Author(s): Shrimad Rajchandra, 
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 902
________________ भीमद राजचन्द्र का फिरसे मुझे स्वप्न भी न हो । परमात्मा आश्चर्यचकित होकर 'तथास्तु' कहकर स्वधामको पधार गये ।" -'श्रीमद् राजचन्द्र' पृ. २४४. ऋषिभद्रपुत्र ऋषिभद्रपुत्र आलभिका नगरीके रहनेवाले थे। ये श्रमणोपासक थे । इस नगरीमें और भी बहुतसे श्रमणोपासक रहते थे। एक बार उन श्रमणोपासकोंमें देवोंकी स्थितिसंबंधी कुछ चर्चा चली। ऋषिभद्रपुत्रने तत्संबंधी ठीक ठीक बात श्रमणोपासकोंको कही। परन्तु उसपर अन्ध श्रमणोपासकोंने श्रद्धा न की, और उन लोगोंने महावीर भगवान्से उस प्रश्नको फिर जाकर पूछा । भगवान् महावीरने कहा कि जो ऋषिभद्र कहते हैं, वह सत्य है । यह सुनकर वे श्रमणोपासक ऋषिभद्रपुत्रके पास आये, और उन सबने अपने दोषोंकी क्षमा माँगी । ये ऋषिभद्रपुत्र मोक्षगामी जीव थे। यह कथन भगवतीसूत्रके ११ वे शतकके १२ वें उद्देशमें आता है। कपिल (मुनि ) ( देखो प्रस्तुत ग्रंथ, मोक्षमाला पाठ ४६-४८). कपिल (ऋषि) ___ कपिल ऋषि सांख्यमतके आयप्रणेता कहे जाते हैं। कपिलको परमर्षि भी कहते हैं। इनके समयके विषयमें विद्वानोंमें बहुत मतभेद है । कपिल अर्ध-ऐतिहासिक व्यक्ति माने जाते हैं। कबीर कबीर साहबका जन्म संवत् १४५५ में हुआ था। ये जुलाहे थे। कहा जाता है कि ये विधवा ब्राह्मणीके गर्भसे उत्पन्न हुए थे। कबीर स्वामी रामानंदके शिष्य थे। कबीर बालकपनसे ही बढ़े. धर्मपरायण थे । वे पढ़े-लिखे तो न थे, परन्तु उन्होंने सत्संग बहुत किया था। उनके हृदयमें हिन्दु-मुसलमान किसीके लिये द्वेषभाव न था । आजकल भी हिन्दु मुसलमान दोनों ही कबीरपंथके अनुयायी पाये जाते हैं। कबीर साहबने स्वयं कोई पुस्तक नहीं लिखी । वे साखी और भजन बनाकर कहा करते थे, जिन्हें उनके चेले कंठस्थ कर लिया करते थे । कबीर मूर्तिपूजाके कट्टर विरोधी थे। कबीर जातिपाँतिको न मानते थे । वे एक पहुँचे हुए ज्ञानी थे। उनकी भाषामें विविध भाषाओंके शब्द मिलते हैं। कबीरकी वाणीमें अगाध ज्ञान और बड़ी शिक्षा भरी हुई है। हिन्दी साहित्यमें कबीर साहबका स्थान बहुत ऊँचा माना जाता है । कबीरने सं० १५७५ में देहत्याग किया । कविवर रवीन्द्रनाथ कबीरके बहुत प्रशंसक हैं। इनकी वाणियोंका अंग्रेजी और फारसीमें भी अनुवाद हुआ है। कबीरको राजचन्द्रजीने मार्गानुसारी कहा है। वे उनकी भक्तिके विषयमें लिखते हैं-" महात्मा कबीर तथा नरसी मेहताकी भक्ति अनन्य, अलौकिक, अद्भुत और सर्वोत्कृष्ट थी; ऐसा होनेपर भी वह निस्पृह थी। ऐसी दुखी स्थिति होनेपर भी उन्होंने स्वपमें भी आजीविकाके लिये-व्यवहारके लियेपरमेश्वरके प्रति दीनता प्रकट नहीं की । यद्यपि दीनता प्रकट किये बिना ईश्वरेच्छानुसार व्यवहार चलता गया है, तथापि उनकी दरिद्रावस्था आजतक जगत्प्रसिद्ध ही है, और यही उनका सबल माहात्म्य है । परमात्माने इनका ' परचा' पूरा किया है, और इन भक्तोंकी इच्छाके विरुद्ध जाकर किया है। क्योंकि वैसी भक्तोंकी इच्छा नहीं होती, और यदि ऐसी इच्छा हो तो उन्हें भक्तिके रहस्यकी प्राप्ति भी न हो।"

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