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पत्र ८३४, ८३५]
विविध पत्र आदि संग्रह-३३वाँ वर्ष
(२)
स्वरूपबोध. योगनिरोध. सर्वधर्म-स्वाधीनता. धर्ममूर्तित्व.
सर्व प्रदेश संपूर्ण गुणात्मकता. सर्वांग संयम. लोकके प्रति निष्कारण अनुग्रह.
८३४ बम्बई, कार्तिक वदी ९, १९५६ (१) अवगाहना अर्थात् अवगाहना । अवगाहनाका अर्थ कद-आकार-नहीं होता । कितने ही तत्त्वके पारिभाषिक शब्द ऐसे होते हैं कि जिनका अर्थ दूसरे शब्दोंसे व्यक्त नहीं किया जा सकता जिनके अनुरूप दूसरा कोई शब्द नहीं मिलता; तथा जो समझे तो जा सकते हैं, पर व्यक्त नहीं किये जा सकते।
अवगाहना ऐसा ही शब्द है । बहुत बोधसे विशेष विचारसे यह समझमें आ सकता है ।
अवगाहना क्षेत्रकी अपेक्षासे है । जुदा रहनेपर भी एकमेक होकर मिल जाना, फिर भी जुदा रहना-इस तरह सिद्धात्माकी जितनी क्षेत्र-व्यापकता है वह उसकी अवगाहना कही है।
(२) जो बहुत भोगा जाता है, वह बहुत क्षीण होता है । समतासे कर्म भोगनेपर उनकी निर्जरा होती है-वे क्षीण होते हैं । शारीरिक विषय भोगते हुए शारीरिक शक्ति क्षीण होती है।
(३) ज्ञानीका मार्ग सुलभ होनेपर भी उसका पाना कठिन है। पहिले सच्चा ज्ञानी चाहिये। उसे पहिचानना चाहिये, उसकी प्रतीति आनी चाहिये । बादमें उसके वचनपर श्रद्धा रखकर निःशंकतासे चलनेसे मार्ग सुलभ है, परन्तु ज्ञानीका मिलना और उसकी पहिचान होना विकट है दुर्लभ है।
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बम्बई, कार्तिक वदी ११ मंगल. १९५६
* जड़ ने चैतन्य बने द्रव्य तो स्वभाव भिन्न, सुप्रतीतपणे बने जेने समजाय छे, स्वरूप चेतन निज जड छे संबंधमात्र, अथवा ते ज्ञेयपण (ण) परद्रव्यमांय छ । एवो अनुभवनो प्रकाश उल्लासित थयो, जडथी उदासी तेने आत्मवृत्ति थाय छे.
कायानी विसारी माया स्वरूपे शमाया एवा, निग्रंथनो पंथ भव अंतनो उपाय छे। .. * जब और चैतन्य दोनोंका स्वभाव मिम मित्र है। इन दोनोंकी सुप्रतीति होकर ये जिसकी समझमें आते है तथा 'निजका स्वरूप चेतन है, और जब केवल संबंधमात्र है, अथवा मह शेयरूपसे पर द्रव्यमें ही गर्भित है'इस अनुभवका जिसे प्रकाश उल्लासित हुआ है, उसकी जबसे उदासीन वृत्ति होकर, आत्मामें वृत्ति होती है। कायाकी मायाको विस्मरण कर जो निजरूपमें लीन हो गये है, ऐसे निप्रेषका पंथ ही संसारके अंत करनेका उपाय है।