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८६ ३व्याख्यान सार-प्रभसमाधान ] विविध पत्र आदि संग्रह - ३३वाँ वर्ष
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जाता है, उसी तरह प्रकृतिका रस मंद कर दिया जाय, तो उसका बल कम हो जाता है। एक प्रकृति बंध करती है और दूसरी प्रकृतियाँ उसमेंसे भाग लेतीं हैं - ऐसा उनका स्वभाव है ।
४. मूल प्रकृतिका क्षय न हुआ हो और उत्तर कर्मप्रकृतिका बंध-विच्छेद हो गया हो, तो भी उसका बंध मूल प्रकृतिमें रहनेवाले रसके कारण पड़ सकता है—यह आश्चर्य जैसा है । ५. अनंतानुबंधी कर्मप्रकृतिकी स्थिति चालीस कोड़ाकोड़ीकी, और मोहनीय ( दर्शनमोहनीय ) की सत्तर कोड़ाकोड़ीकी है ।
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आषाढ वदी ९ शुक्र. १९५६ १. आत्मा, आयुका बंध एक आगामी भवका ही कर सकती है, उससे अधिक भवोंका बंध नहीं कर सकती ।
२. कर्मग्रन्थके बंधचक्रमें जो आठों कर्मप्रकृतियाँ बताई हैं, उनकी उत्तर प्रकृतियाँ एक जीवकी अपेक्षा, अपवादके साथ, बंध उदय आदिमें हैं, परन्तु उसमें आयु अपवादरूपसे है । वह इस तरह कि मिथ्यात्व गुणस्थानवर्ती जीवको बंधमें चार आयुकी प्रकृतिका (अपवाद) बताया है। उसमें ऐसा नहीं समझना चाहिये कि जीव मौजूद पर्यायमें चारों गतिकी आयुका बंध करता है, परन्तु इसका अर्थ यही है कि आयुका बंध करनेके लिये वर्त्तमान पर्यायमें इस गुणस्थानकवर्त्ती जीवको चारों गतियाँ खुली हैं । उसमें वह चारमेंसे किसी एक गतिका ही बंध कर सकता है । उसी तरह जीव जिस पर्याय में हो उसे उसी आयुका उदय होता है । मतलब यह कि चार गतियोंमेंसे वर्त्तमान एक गतिका उदय हो सकता है, और उदीरणा भी उसीकी हो सकती है ।
प्रकृतिकी उदीरणा की जा सकती है; और उदयमें आती है ।
३. जो प्रकृति उदयमें हो, उसके सिवाय दूसरी उतने समय उदयमान प्रकृति रुक जाती है, और वह पीछेसे ४. सत्तर कोड़ाकोड़ीका बड़ासे बड़ा स्थितिबंध है । बाद में वैसे का वैसा ही क्रम क्रमसे बंध पड़ता जाता है । ऐसे जाते हैं, परन्तु भवका बंध पहिले कहे अनुसार ही पड़ता है । ( २४ ) १. विशिष्ट मुख्यतया मुख्यभावका वाचक शब्द है ।
उसमें असंख्याता भव होते हैं । तथा अनंतबंधकी अपेक्षासे अनंतों भव कहे
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आषाढ़ वदी १० शनि १९५६
२. ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, और अंतराय ये तीन प्रकृतियाँ उपशमभावमें कभी नहीं हो सकती-वे क्षयोपशमभावसे ही होती हैं। ये प्रकृति यदि उपशमभाव में हों तो आत्मा जड़वत् हो जाय और क्रिया भी न कर सके; अथवा उससे प्रवृत्ति भी न हो सके । ज्ञानका काम जाननेका है, दर्शनका काम देखनेका है, और वीर्यका काम प्रवर्तन करनेका है ।
वीर्यदो प्रकार से प्रवृत्तिं कर सकता है: - १. अभिसंधि. २. अनाभिसंधि ।
अभिसंधि = आत्माकी प्रेरणासे वीर्यकी प्रवृत्ति होना । अनभिसंधि - कषायसे वीर्यकी प्रवृत्ति होना । ज्ञानदर्शनमें भूल नहीं होती । परन्तु उदयभावसे रहनेवाले दर्शनमोहके कारण भूल होनेसे अर्थात् औरका और मालूम होनेसे, वीर्यकी प्रवृत्ति विपरीतभावसे होती है; यदि वह सम्यक्भावसे हो तो जीव
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