Book Title: Shrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Author(s): Shrimad Rajchandra, 
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 886
________________ ७९६ श्रीमद् राजवन्द्र [८६३ व्याख्यानसार-प्रमसमाधान हो, उसका वीर्य उसी प्रमाणमें परिणमन करता है। इस कारण ज्ञानीके ज्ञानमें अभव्य दिखाई दिये । आत्माकी परमशांत दशासे मोक्ष और उत्कट दशासे अमोक्ष होती है। ज्ञानीने द्रव्यके स्वभावकी अपेक्षा भव्य अभव्य भेद कहे हैं । जीवका वीर्य उत्कट रससे परिणमन करते हुए सिद्धपर्याय नहीं • पा सकता, ऐसा ज्ञानियोंने कहा है। भजना=अंशसे होती है-वह होती भी है नहीं भी होती । वंचक=( मन, वचन कायासे ) ठगनेवाला ।। (३०) श्रावण वदी ८ शनि. १९५६ १. कम्मदव्वेहि समं, संजोगो जो होई जीवस्स । सो बंधी णायव्यो, तस्स वियोगो भवे मोक्खो॥ . -कर्म द्रव्यकी अर्थात् पुद्गल द्रव्यकी साथ जीवका संबंध होना बंध है । तथा उसका वियोग हो जाना मोक्ष है। सम-अच्छी तरह संबंध होना-वास्तविक रीतिसे संबंध होना; ज्यों त्यों कल्पनासे संबंध होना नहीं समझ लेना चाहिये। ...२. प्रदेश और प्रकृतिबंध, मन वचन और कायाके योगसे होता है। स्थिति और अनुभाग बंध कषायसे होता है। ३. विपाक अर्थात् अनुभागसे फलकी परिपक्कता होना । सर्व कर्मीका मूल अनुभाग है। उसमें जैसा तीव्र, तीव्रतर, मंद, मंदतर रस पड़ा है, वैसा उदयमें आता है। उसमें फेरफार अथवा भूल नहीं होती। यहाँ मिट्टीकी कुल्हियामें पैसा, रुपया, सोनेकी मोहर आदिके रखनेका दृष्टान्त लेना चाहिये। जैसे किसी मिट्टीकी कुल्हियामें बहुत समय पहिले रुपया, पैसा, सोनेकी मोहर रक्खी हो, तो उसे जिस 'समय निकालो वह उसी जगह उसी धातुरूपसे निकलती है, उसमें जगहका और उसकी स्थितिका फेरफार नहीं होता; अर्थात् पैसा रुपया नहीं हो जाता, और रुपया पैसा नहीं हो जाता; उसी तरह बाँधा हुआ कर्म द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावके अनुसार ही उदयमें आता है। १. आत्माके आस्तित्वमें जिसे शंका हो वह चार्वाक कहा जाता है। .. ५. तेरहवें गुणस्थानकमें तीर्थकर आदिको एक समयका बंध होता है। मुख्यतया कदाचित् ग्यारहवें गुणस्थानमें अकषायीको भी एक समयका बंध हो सकता है । ६. पवन पानीकी निर्मलताका भंग नहीं कर सकती, परन्तु उसे चलायमान कर सकती है। उसी तरह आत्माके ज्ञानमें कुछ निर्मलता कम नहीं होती; परन्तु जो योगकी चंचलता है, उससे रसके बिना एक समयका बंध कहा है। ७. यद्यपि कषायका रस पुण्य तथा पापरूप है, तो भी उसका स्वभाव कड़वा है। ८. पुण्य भी खरासमेंसे ही होता है। पुण्यका चौठाणिया रस नहीं है, क्योंकि वहाँ एकांत साताका उदय नहीं । कषायके दो भेद हैं:-प्रशस्तराग और अप्रशस्तराग । कषायके बिना बंध नहीं होता। . . . ९. आर्तध्यानका समावेश मुख्यतया कषायमें हो सकता है। प्रमादका चारित्रमोहमें और योगका नामकर्ममें समावेश हो सकता है। ..१... प्रवण पवनकी लहरके समान है; वह शाता है और चला जाता है। . . . . . .

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