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८६३ व्याख्यानसार-प्रभसमाधान ] विविध पत्र आदि संग्रह-३३वाँ वर्ष
७९५ ७. दर्शनावरणीय कर्मके आवरणके कारण दर्शनके अवगादरूपसे आवृत होनेसे चेतनमें मूढ़ता हो गई; और वहींसे शून्यवाद आरम्भ हुआ ।
८. जहाँ दर्शन रुक जाता है वहाँ ज्ञान भी रुक जाता है।
९. दर्शन और ज्ञानका विभाग किया गया है । ज्ञानदर्शनके कुछ टुकड़े होकर वे जुदे जुदे पड़ सकते हों यह बात नहीं है । ये आत्माके गुण हैं। जिस तरह एक रुपयेमें दो अठन्नी होती है, उसी तरह आठ आना दर्शन और आठ आना ज्ञान होता है।
१०. तीर्थकरको एक ही समय दर्शन ज्ञान दोनों साथ होते हैं, इस तरह दिगम्बर मतके अनुसार दो उययोग माने हैं; श्वेताम्बर मतके अनुसार नहीं। १२ वें गुणस्थानकमें ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अंतराय इस तरह तीन प्रकृतियोंका एक साथ ही क्षय होता है, और उत्पन्न होनेवाली लब्धि भी साथमें होती है । यदि ये एक ही समयमें न होते हों, तो उनका भिन्न भिन्न प्रकृतियोंसे अनुभव होना चाहिये । श्वेताम्बर कहते हैं कि ज्ञान सत्तामें रहना चाहिये, क्योंकि एक समयमें दो उपयोग नहीं होते । परन्तु दिगम्बरोंकी उससे जुदी मान्यता है ।
११. शून्यवाद='कुछ भी नहीं' ऐसा माननेवाला; यह बौद्धधर्मका एक भेद है। आयतन= किसी भी पदार्थका स्थल-पात्र । कूटस्थ अचल-जो चलायमान न हो सके। तटस्थ-किनारेपरउस स्थलमें । मध्यस्थ-बीचमें ।
(२७) आषाढ वदी १३ भौम. १९५६ १. चयोपचय जाना जाना । परन्तु प्रसंगवश उसका अर्थ आना जाना—गमनागमन होता है । यह मनुष्यके गमनागमनको लागू नहीं पड़ता—श्वासोच्छास इत्यादि सूक्ष्म क्रियाको ही लागू पड़ता है। चयषिचय=जाना आना ।
२. आत्माका ज्ञान जब चिंतामें रुक जाता है, उस समय नये परमाणु ग्रहण नहीं हो सकते; और जो होते हैं वे नष्ट हो जाते हैं; उससे शरीरका वजन घट जाता है।
३. श्रीआचारांगसूत्रके पहिले शास्त्रपरिज्ञा अध्ययनमें और श्रीषड्दर्शनसमुच्चयमें मनुष्य और वनस्पतिके धर्मकी तुलना कर वनस्पतिमें आत्माका अस्तित्व सिद्ध किया है । वह इस तरह कि दोनों उत्पन्न होते है, दोनों ही बढ़ते हैं, आहार लेते हैं, परमाणु लेते हैं, छोड़ते हैं, मरते हैं इत्यादि ।
(२८)
श्रावण सुदी ३ रवि. १९५६ १. साधु-सामान्यरूपसे गृहवासका त्यागी मूलगुणोंका धारक । यति ध्यानमें स्थिर होकर श्रेणी मॉडनेवाला । मुनि-जिसे अवधि, मनःपर्यवज्ञान तथा केवलज्ञान होता है। ऋषि जो बहुत ऋद्धिधारी हो । ऋषिके चार भेद हैं:-राज्य, ब्रह्म, देव और परम । राजर्षि=ऋद्धिवाला। ब्रह्मर्षि-महान् ऋद्धिवाला । देवर्षि आकाशगामी देव । परमर्षि केवलज्ञानी।
(२९) श्रावणसुदी १० सोम. १९५६ १. अभव्य जीव अर्थात् जो जीव उत्कट रससे परिणमन करे और उससे कर्म बाँधा करे; और जिसे उसके कारण मोक्ष न हो सके । भव्य अर्थात् जिस जीवका वीर्य शांतरससे परिणमन करे और उससे नया कर्मबंध न होनेसे जिसे मोक्ष हो जाय । जिस जीवकी वृत्ति उत्कट रससे परिणमन करती