________________
७७२
श्रीमद् राजचन्द्र
८६३ व्याख्यानसार-प्रश्नसमाधान
४ व्याख्यानसार और प्रश्नसमाधान
. (१) मोरबी, आषाढ़ सुदी ४ रवि. १९५६ १. ज्ञान वैराग्यके साथ, और वैराग्य ज्ञानके साथ होता है-अकेला नहीं होता। २. वैराग्य शृंगारके साथ नहीं होता, और श्रृंगार वैराग्यके साथ नहीं होता ।
३. वीतराग-वचनके असरसे जिसे इन्द्रिय-सुख निरस न लगा, उसे ज्ञानीके वचन कानमें ही पड़े नहीं, ऐसा समझना चाहिये ।।
४. ज्ञानीके वचन विषयके विरेचन करानेवाले हैं । ५. छमस्थ अर्थात् आवरणयुक्त । ६. शैलेशीकरण (शैल पर्वत+ईश-महान् )-पर्वतोंमें महान् मेरुके समान अचल-अडग । ७. अकंप गुणवाला-मन वचन कायाके योगकी स्थिरतावाला. ८. मोक्षमें आत्माके अनुभवका यदि नाश होता हो, तो फिर मोक्ष किस कामका !
९. आत्माका ऊर्ध्वस्वभाव है, तदनुसार आत्मा प्रथम ऊँची जाती है; और कदाचित वह सिद्धशिलातक भटक आती है, परन्तु कर्मरूपी बोझा होनेसे वह फिर नीचे आ जाती है, जैसे डूबा हुआ मनुष्य उछाला लेनेसे एकबार ऊपर आता है, परन्तु फिर नीचे ही चला जाता है।
(२)
आषाढ़ सुदी ५ सोम. १९५६ १. जैन आत्माका स्वरूप है । उस स्वरूपके (धर्मके) प्रवर्तक भी मनुष्य ही थे । उदाहरणके लिये वर्तमान अवसर्पिणीकालमें ऋषभ आदि धर्मके प्रवर्तक थे । इससे कुछ उन्हें अनादि आत्मधर्मका विचार न था यह बात न थी।
२. लगभग दो हज़ार वर्षसे अधिक हुए जैनयति शिखरसूरि आचार्यने वैश्योंको क्षत्रियोंके साथ मिला दिया।
३. उत्कर्ष, अपकर्ष, और संक्रमण ये सत्तामें रहनेवाली कर्मप्रकृतिके ही हो सकते हैं-उदयमें आई हुई प्रकृतिके नहीं हो सकते।
४. आयुकर्मका जिस प्रकारसे बंध होता है, उस प्रकारसे देहस्थिति पूर्ण होती है । ५. ओसवाल 'ओरपाक' जातिके राजपूत हैं।
६. अंधेरेमें न देखना, यह एकांत दर्शनावरणीय कर्म नहीं कहा जाता, परन्तु मंद दर्शनावरणीय कहा जाता है । तमसका निमित्त और तेजस्का अभाव उसीको लेकर होता है।
७. दर्शनके रुकनेपर ज्ञान रुक जाता है। ८.ज्ञेयको जाननेके लिये ज्ञानको बढ़ाना चाहिये । जैसा वजन वैसे ही बाट ।
x संवत् १९५६ में जिस समय श्रीमद् राजचन्द्र मोरवीमें थे, उस समय उन्होंने जो व्याख्यान दिये थे, उन व्याख्यानोंका सार एक श्रोताने अपनी स्मृतिके अनुसार लिख लिया था। उसीका यह संक्षित सार यहाँ दिया गया है।
-अनुवादक.