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श्रीमद् राजचन्द्र
[ व्याख्यानसार-प्रभसमाधान ८६४
२७. महान् आचार्य और ज्ञानियोंमें दोष तथा भूलें नहीं होतीं । अपनी समझमें नहीं, आता, इसलिये हम उसे भूल मान लेते हैं । तथा जिससे अपनेको समझमें आ जाय वैसा अपनेमें ज्ञान नहीं; इसलिये वैसा ज्ञान प्राप्त होनेपर जो ज्ञानीका आशय भूलवाला लगता है, वह समझमें आ जायगा, ऐसी भावना रखनी चाहिये । परस्पर आचायोंके विचार में यदि किसी जगह कोई भेद देखने में आये तो वह क्षयोपशमके कारण ही संभव है, परन्तु वस्तुतः उसमें विकल्प करना योग्य नहीं ।
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२८. ज्ञानी लोग बहुत चतुर थे । वे विषय-सुख भोगना जानते थे । पाँचों इन्द्रियाँ उनके पूर्ण थीं ( पाँचों इन्द्रियाँ जिसके पूर्ण हों, वही आचार्य - पदवीके योग्य होता है ); फिर भी इस संसार और इन्द्रिय-सुखके निर्माल्य लगनेसे तथा आत्माके सनातन धर्ममें श्रेय मालूम होनेसे, वे विषय-सुखसे विरक्त होकर आत्मा सनातनधर्ममें संलग्न हुए हैं ।
२९. अनंतकालसे जीव भटकता है, फिर भी उसे मोक्ष नहीं हुई; जब कि ज्ञानीने एक अंतर्मुहूर्तमें ही मुक्ति बताई है ।
३०. जीव ज्ञानीकी आज्ञानुसार शांतभावमें विचरे तो अंतमुहूर्तमें मुक्त हो जाता है ।
परन्तु उसका पुरुषार्थ नहीं यदि उसका सच्चा (जैसा
गई हैं ।
३१. अमुक वस्तुयें व्यवच्छेद हो गई हैं, ऐसा कहने में आता है; किया जाता, और इससे यह कहा जाता है कि वे व्यवच्छेद हो चाहिये वैसा ) पुरुषार्थ हो तो गुण प्रगट हों, इसमें संशय नहीं अंग्रेजोंने उद्यम किया तो कारीगरी तथा राज्य प्राप्त किया, और हिन्दुस्तानवालोंने उद्यम न किया तो वे उसे प्राप्त न कर सके; इससे विद्या ( ज्ञान ) का व्यवच्छेद होना नहीं कहा जा सकता ।
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३२. विषय क्षय नहीं हुए, फिर भी जो जीव अपनेमें वर्त्तमानमें गुण मान बैठे हैं, उन जीवों के समान भ्रमणा न करते हुए उन विषयोंके क्षय करनेके लिये ही लक्ष देना चाहिये । ( ५ ) आषाढ़ सुदी ८ गुरु. १९५६ १. धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार पुरुषार्थोंमें मोक्ष पहिले तीनसे बढ़कर है । मोक्षके लिये ही बाकीके तीनों हैं ।
२. आत्माका धर्म सुखरूप है, ऐसा प्रतीत होता है। वह सोनेके समान शुद्ध है ।
३. कर्मसे सुखदुःख सहन करते हुए भी परिग्रह उपार्जन करने तथा उसके रक्षण करनेका सब प्रयत्न करते हैं । सब सुखको चाहते हैं, परन्तु वे परतंत्र हैं । तथा परतंत्रता प्रशंसनीय नहीं है। ४. वह मार्ग (मोक्ष) रत्नत्रयकी आराधनासे सब कमका क्षय होनेसे प्राप्त होता है।
५. ज्ञानीद्वारा निरूपण किये हुए तत्त्वोंका यथार्थ बोध होना सम्यग्ज्ञान है ।
६. जीव, अजीव, आश्रव, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष ये तत्त्व हैं । ( यहाँ पुण्यपापको आश्रवमें गिना है ) ।
७. जीवके दो भेद हैं: -- सिद्ध और संसारी: ----
सिद्धः—— सिद्धको अनंतज्ञान दर्शन वीर्य और सुख ये स्वभाव समान हैं। फिर भी अनंतर परंपर होनेरूप उनके पन्द्रह भेद निम्न प्रकारसे कहे हैं:
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