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८५३ व्याख्यानसार-प्रश्नसमाधान विविध पत्र मावि संग्रह-३३वाँ वर्ष
७८५ २. आतके अथवा परमेश्वरके लक्षण कैसे होने चाहिये, उसके संबंधमें तत्त्वार्थसूत्रकी टोकामें पहिली गाथा निम्नरूपसे है:
मोक्षमार्गस्य नेतारं भेत्तारं कर्मभूभृताम् ।
हातारं विश्वतत्त्वानां वंदे तद्गुणलब्धये ॥ सारभूत अर्थः- मोक्षमार्गस्य नेतारं '-मोक्षमार्गको ले जाने वाला यह कहनेसे मोक्षका अस्तित्व, मार्ग, और ले जानेवाला इन तीन बातोंको स्वीकार किया है। यदि मोक्ष है तो उसका मार्ग भी होना चाहिये और यदि मार्ग है तो उसका द्रष्टा भी होना चाहिए; और जो द्रष्टा होता है वही मार्गमें ले जा सकता है । मार्गमें ले जानेका कार्य निराकार नहीं कर सकता—साकार ही कर सकता है । अर्थात् मोक्षमार्गका उपदेश, साकार ही कर सकता है; साकार उपदेष्टा ही-जिसने देहस्थितिसे मोक्षका अनुभव किया है-उसका उपदेश कर सकता है । ' भेत्तारं कर्मभूभृताम्-कर्मरूप पर्वतका भेदन करनेवाला; अर्थात् कर्मरूपी पर्वतोंके भेदन करनेसे मोक्ष हो सकती है। अर्थात् जिसने देहस्थितिसे कर्मरूपी पर्वतोंको भेदन किया है, वही साकार उपदेष्टा है । वैसा कौन है ! जो वर्तमान देहमें जीवन्मुक्त है वह । जो कर्मरूपी पर्वतोंको तोड़कर मुक्त हो गया है, उसे फिरसे कर्मका अस्तित्त्व नहीं होता। इसलिये जैसा बहुतसे मानते हैं कि मुक्त होनेके बाद जो देह धारण करे वह जीवन्मुक्त है, सो ऐसा जीवन्मुक्त हमें नहीं चाहिये । ' ज्ञातारं विश्वतत्त्वानां'–विश्वके तत्वोंको जाननेवाला-कहनेसे यह बताया कि आप्त कैसा चाहिये कि जो समस्त विश्वका ज्ञाता हो । 'वंदे तद्गुणलब्धये '-उसके गुणोंकी प्राप्तिके लिये मैं उसे वंदन करता हूँ-अर्थात् जो इन गुणोंसे युक्त हो वही आप्त है, और वही वंदनीय है।
३. मोक्षपद समस्त चैतन्योंको ही सामान्यरूपसे चाहिये, वह एक जीवकी अपेक्षासे नहीं है। अर्थात यह चैतन्यका सामान्य धर्म है । वह एक जीवको ही हो और दूसरे जीवको न हो, ऐसा नहीं होता।
१. भगवतीआराधनाके ऊपर श्वेताम्बर आचार्योंने जो टीका की है, वह भी उसी नामसे कही जाती है।
५. करणानुयोग अथवा द्रव्यानुयोगमें दिगम्बर और श्वेताम्बरोंके बीचमें कोई अन्तर नहीं, मात्र बाह्य व्यवहारमें ही अन्तर है।
६. करणानुयोगमें गणितरूपसे सिद्धान्त रक्खे गये हैं। उसमें फेर होना संभव नहीं। ७. कर्मग्रन्थ मुख्यरूपसे करेपानुयोगमें गर्भित होता है। ८. परमात्मप्रकाश दिगम्बर आचार्यका बनाया हुआ है। उसके ऊपर टीका है। ९. निराकुलता सुख है। संकल्प दुःख है।
१०. कायक्लेश तप करते हुए भी महामुनिको निराकुलता अर्थात् स्वस्थता देखनेमें आती है। मतलब यह है कि जिसे तप आदिकी आवश्यकता है, और उससे वह तप आदि कायक्लेश करता है, फिर भी वह स्वास्थ्यदशाका अनुभव करता है तो फिर जिसे कायक्लेश करना बाकी ही नहीं रहा, ऐसे सिद्धभगवानको निराकुलता कैसे संभव नहीं !
११. देहकी अपेक्षा चैतन्य बिलकुल स्पध है। जैसे देहगुणधर्म देखनेमें आता है, वैसे ही