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भीमद् राजवन्द्र ८६४ व्याख्यानसार-प्रभसमाधान १७. देह और आत्माका भेद करना भेदज्ञान है । वह ज्ञानीका तेजाब है; उस तेजाबसे देह और आत्मा जुदी जुदी हो सकती है । उस विज्ञानके होनेके लिये महात्माओंने समस्त शास्त्र रचे हैं । जिस तरह तेजाबसे सोना और उसका खोट अलग अलग हो जाते हैं, उसी तरह ज्ञानीके भेदविज्ञानरूप तेजाबसे स्वाभाविक आत्मद्रव्य अगुरुलघु स्वभाववाला होकर प्रयोगी द्रव्यसे जुदा होकर स्वधर्ममें आ जाता है।
१८. दूसरे उदयमें आये हुए कर्मोंका आत्मा चाहे जिस तरह समाधान कर सकती है, परन्तु वेदनीय कर्ममें वैसा नहीं हो सकता, और उसका आत्मप्रदेशोंसे वेदन करना ही चाहिये और उसका वेदन करते हुए कठिनाईका पूर्ण अनुभव होता है। वहाँ यदि भेदज्ञान सम्पूर्ण प्रगट न हुआ हो तो आत्मा देहाकारसे परिणमन करती है, अर्थात् देहको अपना मानकर वेदन करती है, और उसके कारण आत्माकी शांति भंग हो जाती है । ऐसे प्रसंगमें जिन्हें भेदज्ञान सम्पूर्ण हो गया है ऐसे ज्ञानियोंको असातावेदका वेदन करनेसे निर्जरा होती है, और वहाँ ज्ञानीकी कसौटी होती है। इससे अन्य दर्शनवाले वहाँ उस तरह नहीं टिक सकते, और ज्ञानी इस तरह मानकर टिक सकता है।
१९. पुद्गलद्रव्यकी अपेक्षा रक्खी जाय, तो भी वह कभी न कभी तो नाश हो जानेवाला है ही, और जो अपना नहीं, वह अपना होनेवाला नहीं, इसलिये लाचार होकर दीन बनना किस कामका !
२०. जोगापयडिपदेसा-योगसे प्रकृति और प्रदेश बंध होते हैं। २१. स्थिति तथा अनुभागबंध कषायसे बँधते हैं। २२. आठ तरहसे, सात तरहसे, छह तरहसे, और एक तरहसे बंध बाँधा जाता है ।
(१२) आषाद सुदी १५ गुरु. १९५६ १. ज्ञानदर्शनका फल यथाख्यातचारित्र, उसका फल निर्वाण, और उसका फल अव्याबाध सुख है।
(१३)
आषाढ़ वदी १ शुक्र. १९५६ १. देवागमस्तोत्र जो महात्मा समंतभद्राचार्यने (जिसका शब्दार्थ होता है कि जिसे कल्याण मान्य है') बनाया है, और उसके ऊपर दिगम्बर और खेताम्बर आचार्योने टीका की है । ये महात्मा दिगम्बराचार्य थे, फिर भी उनका बनाया हुआ उक्त स्तोत्र वेताम्बर आचार्योंको भी मान्य है। इस स्तोत्रमें प्रथम इलोक निम्न प्रकारसे है:
देवागमनभायानचामरादिविभूतयः ।
मायाविष्वपि दृश्यते नातस्त्वमसि नो महान् ॥ इस श्लोकका भावार्थ यह है कि देवागमन (देवताओंका आगमन होता हो), आकाशगमन (आकाशमें गमन होता हो), चामरादि विभूति (चामर वगैरह विभूति होती हो, समवसरण होता हो इत्यादि )-ये सब मायावियोंमें भी देखे जाते हैं (ये मायासे अर्थात् युक्तिसे भी हो सकते हैं), इसलिये उतने मात्रसे ही आप हमारे महत्तम नहीं (उतने मात्रसे तीर्थकर अथवा जिनेन्द्रदेवका अस्तित्व नहीं माना जा सकता । ऐसी विभूति आदिका हमें कुछ भी प्रयोजन नहीं। हमने तो उसका त्याग कर दिया है)
___ इस आचार्यने मानो गुफामेंसे निकलते हुए तीर्थकरका हाथ पकड़कर उपर्युक्त निरपेक्षमावसे वचन कहे हों-यह भाशय यहाँ बताया गया है। . . '