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श्रीमद् राजवन्छ । ८६३ व्याख्यानसार-प्रश्नसमाधान. यदि आत्मगुणधर्म देखनेमें आवे, तो देहके ऊपरका राग ही नष्ट हो जाय-आत्मवृत्ति विशुद्ध होकर दूसरे द्रव्यके संयोगसे आत्मा देहरूपसे ( विभावसे ) परिणमन करती हुई मालूम हो ।
१२. चैतन्यका अत्यन्त स्थिर होना मुक्ति है। १३. मिथ्यात्व, अविरत, कषाय और योगके अभावसे अनुक्रमसे योग स्थिर होता है । १४. पूर्वके अभ्यासके कारण जो झोका आ जाता है वह प्रमाद है। १५. योगको आकर्षण करनेवाला न होनेसे वह स्वयं ही स्थिर हो जाता है। १६. राग और द्वेष यह आकर्षण है।
१७. संक्षेपमें ज्ञानीका यह कहना है कि पुद्गलसे चैतन्यका वियोग कराना है। अर्थात् रागद्वेषसे भाकर्षणको दूर हटाना है।
१८. जहाँतक अप्रमत्त हुआ जाय वहाँतक जाग्रत ही रहना चाहिये। १९. जिनपूजा आदि अपवादमार्ग है।
२०. मोहनीयकर्म मनसे जीता जाता है, परन्तु वेदनीयकर्म मनसे नहीं जीता जाता । तीर्थकर आदिको भी उसका वेदन करना पड़ता है; और वह दूसरोंके समान कठिन भी लगता है । परन्तु उसमें ( आत्मधर्ममें ) उनके उपयोगकी स्थिरता होकर उसकी निर्जरा होती है; और दूसरेकोअज्ञानीको-बंध पड़ता है । क्षुधा तृषा यह मोहनीय नहीं, किन्तु वेदनीय कर्म है।
जो पुमान परधन हरे, सो अपराधी अज्ञ।।
जो अपनौ धन न्यौहरै, सो धनपति धर्मज्ञ ॥ -श्रीबनारसीदास. २२. प्रवचनसारोद्धार प्रन्थके तीसरे भागमें जिनकल्पका वर्णन किया है। यह श्वेताम्बरीय प्रन्थ है। उसमें कहा है कि इस कल्पको साधनेवालेको निम्न गुणोंवाला महात्मा होना चाहिये:
१ संघयण, २ धीरज, ३ श्रुत, ४ वीर्य, और ५ असंगता। २३. दिगम्बरदृष्टिमें यह दशा सातवें गुणस्थानवी जीवकी है । दिगम्बरदृष्टिके अनुसार स्थविरकल्पी और जिनकल्पी ये नग्न होते हैं। और श्वेताम्बरोंके अनुसार प्रथम अर्थात् स्थविर नग्न नहीं होते । इस कल्पको साधनेवालेका श्रुतज्ञान इतना अधिक बलवान होना चाहिये कि उसकी वृत्ति श्रुतज्ञानाकार हो जानी जाहिये-विषयाकार वृत्ति न होनी चाहिये । दिगम्बर कहते हैं कि नग्न दशावालेका ही मोक्षमार्ग है, बाकी तो सब उन्मत्त मार्ग हैं—णग्गो विमोक्खमग्गो शेषा य उमग्गया सचे । तथा ' नागो ए बादशाहथी आघो'-अर्थात् नग्न बादशाहसे भी अधिक बढ़कर है--इस कहावतके अनुसार यह दशा बादशाहको भी पूज्य है।
२४. चेतना तीन प्रकारकी है:-१ कर्मफलचेतना-एकेन्द्रिय जीव अनुभव करते हैं; २ कर्मचेतना-विकलेद्रिय तथा पंचेन्द्रिय अनुभव करते हैं; ३ ज्ञानचेतना-सिद्धपर्याय अनुभव करती है।
२५. मुनियोंकी वृत्ति अलौकिक होनी चाहिये परन्तु उसके बदले हालमें वह लौकिक देखनेमें भाती है।
(१४) आषाढ वदी २ शनि. १९५६ १. पर्यालोचन-एक वस्तुका दूसरी तरह विचार करना ।